पटेल को छोड़कर महात्मा गांधी ने नेहरू को PM क्यों बनवाया?
महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) अगर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में हस्तक्षेप ना करते तो सरदार वल्लभ भाई पटेल(Sardar Vallabhbhai Jhaverbhai Patel) स्वतंत्र पहली भारतीय सरकार के अंतरिम प्रधानमंत्री होते। जिस समय आजादी मिली पटेल 71 साल के थे, जबकि नेहरू सिर्फ 56 साल के।
देश उस वक्त बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था। जिन्ना पाकिस्तान की जिद पर अड़े थे। ब्रितानी हुकूमत ने कांग्रेस को अंतरिम सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था। कांग्रेस चाहती थी कि, देश की कमान पटेल के हाथों में सौंपी जाए क्योंकि वे जिन्ना से बेहतर मोलभाव कर सकते थे। लेकिन गांधी ने नेहरू को चुना। राजेन्द्र प्रसाद जैसे कुछ कांग्रेस नेताओं ने जरूर खुलकर कहा कि, गांधी जी ने ग्लैमरस नेहरू के लिए अपने विश्वसनीय साथी का बलिदान कर दिया लेकिन ज्यादातर कांग्रेसी खामोश रहे।
बापू ने देश की बागडोर सौंपने के लिए नेहरू को ही क्यों चुना। आजादी के 70 साल के बाद भी यह सवाल भारत की राजनीति में हमेशा चर्चा में रहा है। इसका कारण तलाशने के लिए हमें ब्रिटिश राज के अंतिम सालों की राजनीति और गांधी के साथ नेहरू और पटेल के रिश्तों की बारीकियों को समझना होगा।
वल्लभ भाई पटेल से गांधी की मुलाकात नेहरू से पहले हुई थी, उनके पिता जेवर भाई ने 1857 के विद्रोह में हिस्सा लिया था। तब वे तीन साल तक घर से गायब रहे थे। 1857 के विद्रोह के बारह साल बाद गांधी जी का जन्म हुआ और 18 साल बाद 31 अक्टूबर 1875 में पटेल का, यानी पटेल गांधी से केवल 6 साल छोटे थे, जबकि नेहरू पटेल से 14 -15 साल छोटे थे। उम्र में 6 साल का फर्क कोई ज्यादा नहीं होता इसलिए गांधी और पटेल के बीच दोस्ताना बर्ताव था। पटेल लंदन के उसी लॉं कॉलेज मिडिल टेम्पल से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे। जहां से गांधी, उनके बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल और नेहरू ने बैरिस्टर की डिग्रियां ली थीं।
उन दिनों वल्लभभाई पटेल गुजरात के सबसे महंगे वकीलों में से एक हुआ करते थे। पटेल ने पहली बार गांधी को गुजरात क्लब में साल 1916 में देखा था। गांधी साउथ अफ्रीका में झंडे गाड़ने के बाद पहली दफा गुजरात आए थे। देश में जगह- जगह उनका अभिनंदन हो रहा था। उन्हें कुछ लोग महात्मा भी कहने लगे थे, लेकिन पटेल गांधी के इस महात्मा पन से जरा भी प्रभावित नहीं थे। वो उनके विचारों से बहुत उत्साहित नहीं थे। पटेल कहते थे हमारे देश में पहले से महात्माओं की कमी नहीं है। हमें कोई काम करने वाला चाहिए। गांधी क्यों इन बिचारे लोगों से ब्रह्मचर्य की बातें करते हैं। यह ऐसा ही है, जैसे भैंस के आगे भागवत गाना।
साल 1916 की गर्मियों में गांधी गुजरात क्लब में आए। उस समय पटेल अपने साथी वकील गणेश वासुदेव मावलंकर के साथ ब्रिज खेल रहे थे। मावलंकर गांधी से बहुत प्रभावित थे। वो गांधी से मिलने को लपके। पटेल ने हंसते हुए कहा “मैं अभी से बता देता हूं कि वो तुमसे क्या पूछेगा”। वो पूछेगा गेहूं से छोटे कंकड़ निकालना जानते हो कि नहीं। फिर वो बताएगा कि, इससे देश को आजादी किन तरीकों से मिल सकती है। लेकिन बहुत जल्दी ही पटेल की गांधी को लेकर धारणा बदल गई। चंपारण में गांधी के जादू का उन पर जबरदस्त असर हुआ और वो गांधी से जुड़ गए। खेड़ा का आंदोलन हुआ तो पटेल गांधी के और करीब आ गए। असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो पटेल अपनी दौड़ती हुई वकालत छोड़ कर पक्के गांधी भक्त बन गए और इसके बाद हुआ बारदोली सत्याग्रह जिसमें पटेल पहली बार सारे देश में मशहूर हो गए। ये 1928 में एक प्रमुख किसान आन्दोलन था। प्रांतीय सरकार ने किसानों के लगान में 30 फीसदी की बढ़ोतरी कर दी। पटेल किसान आंदोलन के नेता बने और ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा।
इसी आंदोलन के बाद पटेल को गुजरात की महिलाओं ने सरदार की उपाधि दी। 1931 के कांग्रेस के कराची अधिवेशन में पटेल पहली और आखिरी बार पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। पहली बार वे गुजरात के सरदार से देश के सरदार बन गए। देश को 15 अगस्त 1947 को आजाद होना था, लेकिन उससे एक साल पहले ब्रिटेन ने भारतीय हाथों में सत्ता सौंप दी थी। अंतरिम सरकार बननी थी। तय हुआ था कांग्रेस का अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री बनेगा। उस वक्त कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद थे। वो पिछले छह साल से इस पद पर थे। अब उनके जाने का वक्त हो गया था। तब तक गांधी नेहरू के हाथ में कांग्रेस की कमान देने का मन बना चुके थे। 20 अप्रैल 1946 को उन्होंने मौलाना को पत्र लिखकर कहा कि, वे एक वक्तव्य जारी करें कि अब वह अध्यक्ष नहीं रहना चाहते हैं। गांधी ने बिना लाग लपेट के ये साफ भी कर दिया कि, अगर इस बार मुझसे राय मांगी गई तो मैं जवाहर लाल नेहरू को पसंद करूंगा। इसके कई कारण हैं उनका मैं जिक्र नहीं करना चाहता। इस पत्र के बाद पूरे कांग्रेस में खबर फैल गई कि, गांधी नेहरू को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं। 29 अप्रैल 1946 में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पार्टी का नया अध्यक्ष चुना जाना था, जिसे कुछ महीने बाद ही अंतरिम सरकार में भारत का प्रधानमंत्री बनना था। इस बैठक में महात्मा गांधी के अलावा नेहरू, सरदार पटेल, आचार्य कृपलानी, राजेन्द्र प्रसाद, खान अब्दुल गफ्फार खान के साथ कई बड़े कांग्रेसी नेता शामिल थे। कमरे में बैठा हर एक शख्स जानता था कि गांधी नेहरू को अध्यक्ष देखना चाहते हैं। परंपरा के मुताबिक कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव प्रांतीय या कांग्रेस कमेटियां करती थीं और 15 में से 12 प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया था। बची हुई तीन कमेटियों ने आचार्य जेबी कृपलानी और पट्टाभि सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया था। किसी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने अध्यक्ष पद के लिए नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं किया था जबकि सारी कमेटियां अच्छी तरह जानती थीं कि, गांधी नेहरू को चौथी बार अध्यक्ष बनाना चाहते हैं। पार्टी के महासचिव कृपलानी ने पीसीसी के चुनाव की पर्ची गांधी की तरफ बढ़ा दी। गांधी ने कृपलानी की तरफ देखा। कृपलानी समझ गए कि गांधी क्या चाहते हैं। उन्होंने नया प्रस्ताव तैयार कर नेहरू का नाम प्रस्तावित किया। उस पर सबने दस्तखत किए। पटेल ने भी दस्तखत किए। अब अध्यक्ष पद के दो उम्मीदवार थे। एक नेहरू और दूसरे पटेल।
नेहरू तभी निर्विरोध अध्यक्ष चुने जा सकते थे। जब पटेल अपना नाम वापस ले। कृपलानी ने एक कागज पर उनकी नाम वापसी की अर्जी लेकर दस्तखत के लिए पटेल की तरफ बढ़ा दी। मतलब साफ था चूंकि गांधी चाहते हैं नेहरू अध्यक्ष बने। इसलिए आप अपना नाम वापस लेने के कागज पर साइन कर दें लेकिन आहत पटेल ने दस्तखत नहीं किए और उन्होंने ये पुर्जा गांधी की तरफ बढ़ा दिया। गांधी ने नेहरू की तरफ देखा और कहा जवाहर वर्किंग कमेटी के अलावा किसी भी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने तुम्हारा नाम नहीं सुझाया है। तुम्हारा क्या कहना है। नेहरू खामोश रहे। वहां बैठे सारे लोग खामोश थे। गांधी को शायद उम्मीद थी कि, नेहरू कहेंगे तो ठीक है आप पटेल को ही मौका दे। लेकिन नेहरू ने ऐसा कुछ नहीं कहा। अब अंतिम फैसला गांधी को करना था।
गांधी ने वो कागज फिर पटेल को लौटा दिया। इस बार सरदार ने उस पर दस्तखत कर दिए। कृपलानी ने ऐलान किया तो नेहरू निर्विरोध अध्यक्ष चुने जाते हैं। कृपलानी ने अपनी किताब “गांधी हिज लाइफ एंड थॉट्स” में इस पूरी घटना का विस्तार से जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है मेरा इस तरह हस्तक्षेप करना पटेल को अच्छा नहीं लगा। पार्टी का महासचिव होने के नाते मैं गांधी की मर्जी का काम यंत्रवत कर रहा था और उस वक्त मुझे ये बहुत बड़ी चीज नहीं लगी। आखिर ये एक अध्यक्ष का ही तो चुनाव था। मुझे लगा अभी बहुत सी लड़ाइयां सामने हैं लेकिन भविष्य कौन जानता है। लेकिन सवाल उठता है कि, गांधी ने आखिर ऐसा क्यों किया। दरअसल ये महात्मा गांधी ही कर सकते थे। कांग्रेस का अध्यक्ष कौन बनेगा ये फैसला एक ऐसा आदमी कर रहा था जो 12 साल पहले ही कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे चुका था। लेकिन कांग्रेसियों के लिए ये बड़ी बात नहीं थी क्योंकि साल 1929, 1936, 1939 के बाद ये चौथा मौका था जब पटेल ने गांधी जी के कहने पर अध्यक्ष पद से अपना नामांकन वापस लिया था। सब हक्का बक्का रह गए। तब के जाने माने पत्रकार दुर्गादास ने अपनी किताब “इंडिया फ्राम कर्जन टू नेहरू” में लिखा है। राजेंद्र प्रसाद ने मुझसे कहा कि, गांधीजी ने ग्लैमरस नेहरू के लिए अपने विश्वसनीय साथी का बलिदान कर दिया और मुझे डर है कि, अब नेहरू अंग्रेजों के रास्ते पर आगे बढ़ेंगे। राजेंद्र बाबू की ये प्रतिक्रिया जब मैंने गांधी जी को बताई तो वे हंसे और उन्होंने राजेंद्र की सराहना करते हुए कहा कि, नेहरू आनेवाली ढेर सारी समस्याओं का सामना करने के लिए खुद को तैयार कर चुके हैं।
तो सवाल है इतने विरोधों के बावजूद गांधी ने पटेल की जगह नेहरू को क्यों चुना। जैसे कि गांधी ने कहा था कि उनके पास इसकी कई वजहें हैं लेकिन वे वजह ना किसी ने उनसे पूछें ना उन्होंने किसी को बताई। कांग्रेस में तो किसी में हिम्मत नहीं थी कि वह बापू से पूछे कि सरदार पटेल जैसे योग्य नेता को छोड़कर आपने नेहरू को क्यों चुना। सब जानते थे कि, पटेल के पाँव जमीन पर मजबूती से स्थापित हैं। वो जिन्ना जैसे लोगों से उन्हीं की ज़ुबान में मोलभाव कर सकते हैं। उनसे जब पत्रकार दुर्गादास ने सवाल पूछा तो गांधी ने माना कि, बतौर कांग्रेस अध्यक्ष पटेल एक बेहतर नेगोशीएटर और ऑर्गनाइजर हो सकते हैं। लेकिन उन्हें लगता है कि, नेहरू को सरकार का नेतृत्व करना चाहिए। जब दुर्गादास ने गांधी से पूछा कि आपके गुण पटेल में क्यों नहीं पाते हैं तो इस पर गांधी ने हंसते हुए कहा जवाहर हमारे कैम्प में अकेला अंग्रेज है। गांधी को लगा कि, दुर्गादास उनके जवाब से संतुष्ट नहीं हैं तो उन्होंने कहा। जवाहर दूसरे नंबर पर आने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे। अंतरराष्ट्रीय विषयों को पटेल के मुकाबले अच्छे से समझते हैं वो इसमें अच्छी भूमिका निभा सकते हैं। ये दोनों सरकारी बैलगाड़ी को खींचने के लिए दो बैल हैं। इसमें अंतरराष्ट्रीय कामों के लिए नेहरू और राष्ट्र के कामों के लिए पटेल होंगे। दोनों गाड़ी अच्छी खींचेंगे। गांधी के इस प्रेस इंटरव्यू से दो बातें निकलकर आईं। एक ये कि नेहरू नंबर दो नहीं होना चाहते थे, जबकि गांधी को भरोसा था कि पटेल को नंबर दो होने में कोई ऐतराज नहीं होगा और वाकई ऐसा ही हुआ। क्योंकि पटेल मुंह फुलाने की बजाए एक हफ्ते के अंदर फिर न केवल सामान्य हो गए बल्कि हंसी मजाक करने लगे। उनकी बातों पर हंसने वालों में खुद गांधी भी शामिल थे। दूसरी बात ये कि गांधी को लगता कि अपनी अंग्रेजियत के कारण सत्ता हस्तांतरण को नेहरू पटेल के मुकाबले ज्यादा बेहतर ढंग से समझा सकते हैं। महात्मा गांधी ने एक और मौके पर भी यही बात कही थी कि, जिस समय हुकूमत अंग्रेजों के हाथ से ली जा रही हो उस समय कोई दूसरा आदमी नेहरू की जगह नहीं ले सकता। वे हैरो के विद्यार्थी कैम्ब्रिज के स्नातक और लंदन के बैरिस्टर होने के नाते अंग्रेजों को बेहतर ढंग से संभाल सकते हैं।
यहां गांधी सही थे बाहर की दुनिया में नेहरू का नाम आजादी की लड़ाई में गांधी के बाद दूसरे नंबर पर था। ना केवल यूरोपीय लोग बल्कि अमरीकी भी नेहरू को महात्मा गांधी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते थे। जबकि पटेल के बारे में ऐसा बिल्कुल नहीं था। पटेल को शायद ही कोई विदेशी गांधी का उत्तराधिकारी मानता हो। लंदन के कहवा घरों में बुद्धिजीवियों के बीच नेहरू की चर्चा होती थी। तमाम वायसराय और क्रिप्स समेत कई अंग्रेज अफसर नेहरू के दोस्त थे। उनसे नेहरू की निजी बातचीत होती थी। नेहरू और पटेल में और भी बड़े अंतर थे जो राजनीति में बहुत मायने रखते हैं। नेहरू एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। उन्हें अंग्रेजी और हिन्दी में बोलने और लिखने की कमाल की महारत हासिल थी। नेहरू उदार थे और उनका खुलापन उन्हें लोकप्रिय बनाता था। वो भावुक और सौन्दर्य प्रेमी थे जो किसी को भी रिझा सकते थे। इसके उलट पटेल सख्त और थोड़े रूखे थे वो व्यवहार कुशल थे लेकिन उतने ही मुंहफट भी थे। दिल के ठंडे लेकिन हिसाब किताब में माहिर, नेहरू जोड़ तोड़ में बिल्कुल माहिर नहीं थे। वे कांग्रेस में भी अलग थलग रहने वाले नेता थे। जेल में बंद रहकर वे अपने साथी कांवरियों से गपशप करने की जगह अपनी कोठरी में अकेले बैठ कर डिस्कवरी ऑफ इंडिया जैसी किताबें लिखते थे। उनकी अभिजात्य वर्ग की अपनी एक अलग दुनिया थी। वही पटेल राजनीतिक तंत्र का हर पुर्जा पहचानते थे। जोड़ तोड़ करने में माहिर थे। यही वजह थी कि, प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने उन्हें 15 में से 12 कमेटियों का समर्थन मिला। नेहरू कमाल के वक्ता थे जबकि पटेल को भाषण बाजी से चिढ़ थी। वे दिल से और साफ-साफ बोलते थे। ऐसा नहीं था कि मुसलमानों को लेकर उनके मन में आरएसएस जैसी कोई वितृष्णा या पूर्वाग्रह था, लेकिन खरा खरा बोलने के कारण वह देश के मुसलमानों में नापसंद किए जाने लगे। नेहरू समाजवाद के मसीहा थे तो पार्टी के लिए चंदा इकट्ठा करने वाले पटेल पूंजीवादियों के संरक्षक। नेहरू आधुनिक हिंदुस्तान और धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना देखते थे तो पटेल राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखते थे। हिंदू और हिंदू परंपरा को लेकर उनके मन में कोमल भावनाएं थीं जो वक्त बेवक्त उन्हें उत्तेजित कर देती थीं। नेहरू में एक पैनी राजनीतिक अंतर्दृष्टि थी। बावजूद इसके वे स्वाभाविक रूप से भावुक और जरूरत से ज्यादा कल्पनाशील थे।
नेहरू के अध्यक्ष चुने जाने वाले इस साल की ही दो घटनाएं हैं जो नेहरू और पटेल के व्यक्तित्व को बखूबी उजागर करती हैं। कांग्रेस और लीग दोनों कैबिनेट मिशन की योजना तकरीबन कबूल कर चुकी थी। अगले महीने अंतरिम सरकार बनी थी जिसमें दोनों के प्रतिनिधि शामिल होने वाले थे। यानी देश का विभाजन टलता हुआ दिख रहा था। ये बात अलग थी कि, कांग्रेस और लीग दोनों अपने हिसाब से कैबिनेट मिशन की योजना का मतलब निकाल रहे थे। ऐसे माहौल में नेहरू ने 7 जुलाई 1946 को कांग्रेस कमेटी की बैठक बुलाई जिसमें उन्होंने साफ कर दिया कि कांग्रेस के हिसाब से इस योजना में क्या है। कांग्रेस मानती थी कि, चूंकि प्रांतों को किसी समूह में रहने या ना रहने की आजादी होगी इसलिए जाहिर है कि उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत और असम जहां कांग्रेस की सरकारें हैं वह पाकिस्तान के बजाय हिंदुस्तान वाले समूहों से जुड़ना चाहेंगे।
जिन्ना कांग्रेस की इस व्याख्या से कतई सहमत नहीं थे। उनके अनुसार कैबिनेट मिशन योजना के तहत पश्चिम के चार और पूर्व के दो राज्यों का दो मुस्लिम बहुल समूह का हिस्सा बनना बाध्यकारी था। बस यहीं सोच का अंतर था। अभी समझदारी ये भी थी कि जैसा जो सोच रहा है सोचे, पहले कांग्रेस और लीग मिलकर अंतरिम सरकार बनाएं। फिर जो जैसा होगा तब वैसा देखा जाएगा। लेकिन इसके तीन दिन बाद 10 जुलाई 1946 को नेहरू ने मुम्बई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि, कांग्रेस ने संविधान सभा में शामिल होने का फैसला तो कर लिया है लेकिन अगर उसे जरूरी लगा तो वह कैबिनेट मिशन योजना में फेरबदल भी कर सकती है। नेहरू ने एक बयान देकर कैबिनेट मिशन की सारी योजनाओं को एक मिनट में ध्वस्त कर दिया। इससे अकूत भारत की आखिरी उम्मीद पर पानी फिर गया। नाराज जिन्ना को मौका मिल गया। उन्होंने भी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और साफ कह दिया कि, कांग्रेस के इरादे नेक नहीं हैं। अब अगर ब्रिटिश राज के रहते ही मुसलमानों को पाकिस्तान नहीं दिया गया तो बहुत बुरा होगा।
मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त से डायरेक्ट ऐक्शन का ऐलान कर दिया। जिन्ना के डायरेक्ट ऐक्शन का नतीजा भारी हिंसा होगी, यह कोई नहीं जानता था। लेकिन सरदार पटेल समझ रहे थे कि नेहरू से बड़ी भारी गलती हो गई। उनकी बात सही थी लेकिन इसका खुला ऐलान करने की जरूरत नहीं थी। सरदार ने अपने करीबी मित्र और अपने निजी सचिव डीपी मिश्रा को एक खत लिखा जिसमें उन्होंने लिखा था। हालांकि नेहरू अब तक चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जा चुके हैं लेकिन उनकी हरकतें मासूमियत से भरी लेकिन बचकानी होती हैं। उनकी ये प्रेस कॉन्फ्रेंस भावुकता से भरी और मूर्खतापूर्ण थी। लेकिन उनकी इन तमाम मासूम गलतियों के बावजूद उनके अंदर आजादी के लिए गजब का जज्बा और उत्साह है जो उन्हें बेसब्र बना देता है जिसके चलते वे अपने आप को भूल जाते हैं। जरासा भी विरोध होने पर वे पागल हो जाते हैं क्योंकि वे उतावले हैं।
नेहरू की पहाड़ जैसी भूल का नतीजा अब बहुत जल्द देश के सामने आ गया। जिन्ना के डायरेक्ट ऐक्शन से देश में हिंदू मुस्लिम दंगे भड़क गए। अकेले कलकत्ता शहर में हजारों लोग मारे गए, लाखों लोग बेघर हो गए। नोआखाली में भी भारी कत्लेआम हुआ। धीरे-धीरे देश को इन दंगों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। इसके बाद गांधी कलकत्ता से लेकर नोआखाली और बिहार तक दंगों में मारे गए हिंदुओं और मुसलमानों के खून को साफ करने की 24 घंटे की ड्यूटी पर लगे रहे। ये ड्यूटी आजादी मिलने के दिन तक जारी रही। जगह जगह दंगे हो रहे थे हिंदू-मुसलमान मारे जा रहे थे ऐसे में पटेल के हिंदुत्व ने उछाल मारा और 23 नवंबर 1946 को मेरठ में कांग्रेस के अधिवेशन में अपना आपा खो बैठे। अधिवेशन में उन्होंने अपने भाषण में कह दिया धोखे से पाकिस्तान लेने की बात मत करो। हां अगर तलवार से लेना है तो उसका मुकाबला तलवार से किया जा सकता है।
पटेल का यह बयान सनसनीखेज था। गांधी की अहिंसा नीति के एकदम उलट। गांधी तक शिकायत तुरंत पहुंच गई। गांधी ने पटेल को लिखा तुम्हारे बारे में बहुत सी शिकायतें सुनने में आई हैं बहुत में अतिशयोक्ति हो तो वो अनजाने में हैं लेकिन तुम्हारे भाषण लोगों को खुश करने वाले और उकसाने वाले होते हैं। तुमने हिंसा अहिंसा का भेद नहीं रखा है। तुम लोगों को तलवार का जवाब तलवार से देना सिखा रहे हो। जब मौका मिलता है मुस्लिम लीग का अपमान करने से नहीं चूकते। अगर यह सब सच है तो बहुत हानिकारक है। पद से चिपके रहने की बात करते हो और अगर करते हो तो वह भी चुभने वाली चीज है। मैंने तुम्हारे बारे में जो सुना वह विचार करने के लिए तुम्हारे सामने रखा है। यह समय बहुत नाजुक है। हम जरा भी पटरी से उतरे कि नाश हुआ समझो। कार्य समिति में जो समरसता होनी चाहिए वह नहीं है। गंदगी निकालना तुम्हें आता है उसे निकालो।
इसी पत्र में आगे गांधी ने पटेल को यह भी बता दिया कि वो बूढ़े हो गए हैं। गांधी ने लिखा मुझे और मेरा काम समझने के लिए किसी विश्वसनीय समझदार आदमी को भेजना चाहो तो भेज देना। तुम्हें दौड़ कराने की जरूरत नहीं। तुम्हारा शरीर भाग दौड़ के लायक नहीं रहा। शरीर के प्रति लापरवाह रहते हो यह बिल्कुल ठीक नहीं है।
ये दो घटनाएं नेहरू और पटेल के व्यक्तित्व के बारे में बताने के लिए काफी हैं। सच तो ये है कि गांधी 1942 में उस वक्त नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे जब दोनों के बीच मतभेद चरम पर थे। तब गांधी ने कहा था हमें अलग करने के लिए व्यक्तिगत मतभेद से कहीं अधिक ताकतवर शक्तियों की जरूरत होगी। कई वर्षों से मैं यह कहता आया हूं और आज भी कहता हूं कि, जवाहर लाल मेरे उत्तराधिकारी होंगे। वे कहते हैं वो मेरी भाषा नहीं समझते और मैं उनकी। फिर भी मैं जानता हूं, जब मैं नहीं रहूंगा तब वे मेरी ही भाषा बोलेंगे।
लेकिन इसका मतलब ये नहीं था कि, गांधी पटेल से कम प्रेम करते थे। आज न गांधी हैं, न नेहरू और पटेल। वक्त का पहिया पूरी तरह से घूम गया है। आज नेहरू कटघरे में हैं और गुजरात में लगी लौहपुरुष पटेल की करीब 600 फीट ऊंची दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति इतिहास को पलट कर देख रही है। कांग्रेस के महान नेता पटेल के हिंदुत्व पर उस आरएसएस ने कब्जा कर लिया है जिसे पटेल ने कभी प्रतिबंधित किया था।