हल्दीघाटी का वीर योद्धा राजा रामशाह तोमर
मुगल सम्राट अकबर ने धीरे धीरे पूरे उत्तर भारत पर अपना अधिकार कर लिया था। राजस्थान में आमेर, मारवाड़ जैसे बड़े राज्यों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। परन्तु स्वाभिमानी महाराणा प्रताप ने बड़े प्रलोभनों और दबाव के बावजूद अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
अकबर ने वर्ष 1576 ईस्वी की गर्मियों में मानसिक और आसफ खान को एक बड़ी सेना के साथ मेवाड़ पर हमला करने के लिए भेजा। अकबर की इस योजना की सबसे पहली जानकारी कुम्भलगढ़ की रामशाह तवर के सैनिक शिविर में पहुंची। उन्होंने तुरंत अपने पुत्र शालिवाहन को इसकी सूचना देने के लिए महाराणा प्रताप के पास भेजा। प्रताप ने बिना विचलित हुए इस हमले की खबर सुनकर इसका सामना करने के लिए सब सरदारों को रामशाह की हवेली पर बुलाया। इस बैठक में राव संग्राम, कल्याण चुण्डावत ,बिंदा झाला, डोड, युवराज अमरसिंह, भामाशाह, हरदास चौहान आदि वीर एकत्रित हुए। जब प्रताप हवेली में पहुंचे तो रामशाह तंवर ने उनका स्वागत किया और हवेली में आने का उपकार माना।
युद्ध के विचार विमर्श में राजा राम शाह ने सलाह दी कि, मुगलों को घाटी में आने दिया जाए और उन्हें घेरकर मार दिया जाए। पर युवा सरदारों ने इसका विरोध किया और आगे बढ़ कर मैदान में लड़ने में शौर्य समझा और राजा रामशाह के भयभीत होने का मजाक किया जो उन्हें अच्छा नहीं लगा। अंत में प्रताप ने उचित जगह लड़ने का निर्णय किया। इस प्रकार जब मुगल सेना मेवाड़ पहुंची तो महाराणा और उनके वीर योद्धा उसका सामना करने को तैयार हो गए। महाराणा और उनके वीर योद्धाओं की छोटी सी सेना अस्त्र -शस्त्र से सज्जित होकर देवताओं की स्तुति कर युद्ध के लिए निकलने लगी। रानियों ने उनकी आरती उतारी और इस प्रकार उनकी सेना ने कूच किया।
मार्ग में पड़ने वाले गांवों के लोगों ने उनका आदर सत्कार किया। लोहसिंह गांव होते हुए महाराणा प्रताप हल्दी घाटी पहुंचे जहां 18 जून 1576 को यह प्रसिद्ध युद्ध हुआ। मेवाड़ की सेना के दाएं कमान का नेतृत्व राजा रामशाह तंवर कर रहे थे। उनके साथ उनके पुत्र शालिवाहन, भवानी सिंह, प्रताप सिंह और पौत्र बलभद्र पीछे। बाई कमान का नेतृत्व मानसिंह झाला कर रहे थे। हरावल में किशनदास चुण्डावत, भीमसिंह डोडिया, रामदास राठौड़ आदि थे। युद्ध से पूर्व राम शाह ने अपने पुत्रों समेत महाराणा प्रताप का इस प्रकार अभिवादन किया जिस प्रकार महाभारत के युद्ध में द्रुपद अपने पुत्रों के साथ पांडवों की सहायता में युद्ध करने आए थे।
युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व जैसे ही महाराणा का विजय निशान का हाथी घाटी से बाहर निकला राजा राम शाह की सैन्य कमान ने हाथी से पीछे घाटी से निकल कर मुगल सेना की हरावल पर ऐसा भयंकर प्रहार किया कि, मुगल सेना पीछे ही और भाग खड़ी हुई। इस भगदड़ में जब बदायूंनी ने आसफ खान से पूछा कि, हम शत्रु राजपूतों और मुगलों के अधीन राजपूतों में फर्क कैसे करें तो आसफ खान ने कहा कि, तीर चलाते जाओ चाहे जिस ओर का भी राजपूत मरे फायदा तो इस्लाम का ही है। बदायूँ ने बाद में लिखा किz राजपूत की भीड़ इतनी थी कि, मेरा एक भी तीर खाली नहीं गया। पर असफ खान राजपूतों के शौर्य के आगे ठहर न सका।
महाराणा प्रताप की हरावल ने मुगलों की इस हरावल को कुचलकर रख दिया। खुद महाराणा प्रताप के वार से शहजादा सलीम और मानसिंह मरने से बाल बाल बचे। मुगल सेनापति जगन्नाथ कछवाहा भी बाल बाल बचा। हाथी की सूंड में बंधी तलवार से महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक भी घायल हो गया किंतु दुर्भाग्य से मुगलों की दाई कमान के सैय्यद भागे नहीं बल्कि उन्होंने भी डटकर युद्ध किया। इस समय मुगलों की अतिरिक्त सेना उनकी सहायता के लिए वहां पहुंच गई और इस अतिरिक्त सेना से युद्ध का पासा ही पलट गया। खुद मुगलों ने यह झूठी अफवाह भी उड़ा दी कि, स्वयं अकबर की एक और बड़ी सेना लेकर पहुंचने ही वाला है। शत्रु सेना की संख्या कई गुनी देखकर राजपूत समझ गए कि, अब विजय संभव नहीं है इसलिए भविष्य में संघर्ष जारी रखने के लिए पहले तो महाराणा को युद्धभूमि से सुरक्षित जाने को बड़ी मुश्किल से तैयार किया गया। उसके बाद राजपूतों ने रणभूमि में आत्मबलिदान का निर्णय लिया।
कुंवर शालिवाहन ने अभिमन्यु उसका युद्ध किया और अभिमन्यु की तरह ही उन्हें सैकड़ों मुगलों से घेर कर शहीद किया। इसके बाद राजा रामशाह घायल शेर की तरह मुगलों पर टूट पड़े और वीरता से लड़ते हुए रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए। रामशाह तंवर के दो अन्य पुत्र भान सिंह और प्रताप सिंह भी वीरगति को प्राप्त हो गए। इस भीषण युद्ध में केवल बलभद्र ही घायल होकर बच सका। इस युद्ध में बीता झाला और मानसिंह झाला ने भी वंदनीय त्याग किया। रामदास राठौड़, भीमसिंह डोडिया, देवी चंद चौहान बाबू खंडेराव, भदौरिया, दुर्गा तोमर आदि सैकड़ों वीरों ने जिस पराक्रम से युद्ध कर अपना बलिदान दिया उसे राजपूतों और हिन्दुत्व की कीर्ति आज भी चहुं ओर फैली हुई है।
इतिहास और इस युद्ध में स्वयं भाग लेने वाले बदायूंनी लिखता है कि, अगर मुगलों की दाई कमान के सैयद भी बाकी मुगलों की तरह भाग पड़ते तो इस युद्ध में मुगलों की हार निश्चित थी। बदायूंनी ने यह भी लिखा कि, रामशाह तंवर महाराणा की सेना में सदैव आगे रहता था और इस युद्ध में उसने ऐसी प्रचंड वीरता दिखाई जिसका वर्णन करना असंभव है। इस युद्ध के दशकों बाद भी इसमें भाग लेने वाले मुगल सैनिक दक्षिण भारत में भी इस युद्ध की भीषणता और राजपूतों के शौर्य के किस्से सुनाया करते हैं। हल्दीघाटी के युद्ध स्थल के रफ्तार में राजा रामशाह तंवर और कुंवर शालिवाहन तंवर की छत्र समाधियां आज भी विद्यमान हैं। हल्दीघाटी के सभी शहीदों को हमारा शत शत नमन।