कितने पंथो में बटा हैं इस्लाम | Islam and its various denominations

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कितने पंथों में बंटा है मुस्लिम समाज(इस्लाम)?
कितने पंथों में बंटा है मुस्लिम समाज(इस्लाम)?

कितने पंथो में बटा हैं इस्लाम 
Islam and its various denominations


कितने पंथों में बंटा है मुस्लिम समाज ?
इस्लाम के सभी अनुयायी खुद को मुसलमान कहते हैं, लेकिन इस्लामिक कानून यानी फिका और इस्लामिक इतिहास की अपनी -अपनी समझ के आधार पर मुसलमान कई पंथों में बंटे हैं। बड़े पैमाने पर या संप्रदाय के आधार पर देखा जाए तो मुसलमानों को दो हिस्सों सुन्नी और शिया में बांटा जा सकता है। हालांकि शिया और सुन्नी भी कई फिरकों या पंथों में बंटे हुए हैं। बात अगर शिया सुन्नी की करें तो दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि, अल्लाह एक है, मोहम्मद साहब उनके दूत हैं, और कुरान आसमानी किताब यानी अल्लाह की भेजी हुई किताब है। लेकिन दोनों समुदाय में विश्वासों और पैगंबर मोहम्मद की मौत के बाद उनके उत्तराधिकारी के मुद्दे पर गंभीर मतभेद हैं। इन दोनों की इस्लामी कानून भी अलग-अलग हैं।
सुन्नी या सुन्नत का मतलब उस तौर तरीके को अपनाना है जिस पर पैगंबर मुहम्मद ने खुद अमल किया हो और इसी हिसाब से वो सुन्नी कहलाते हैं। यह 570 से 632 ईस्वी का दौर था। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया की लगभग 80 से 85 प्रतिशत मुसलमान सुन्नी हैं, जबकि 15 से 20 प्रतिशत के बीच शिया है। सुन्नी मुसलमानों का मानना है कि, पैगंबर मोहम्मद के बाद उनके ससुर हजरत अबू बकर 632 से लेकर 634 ईस्वी तक मुसलमानों की नई नेता बनीं जिन्हें खलीफा कहा गया। इस तरह अबूबकर के बाद हजरत उमर 634 से 644 ईस्वी, हजरत उस्मान 644 से 656 ईस्वी और हजरत अली 656 से 661 ईसवी मुसलमानों की नेता बने। इन चारों को सही दिशा में चलने वाला कहा जाता है।

इसके बाद से जो लोग आए वो राजनैतिक रूप से तो मुसलमानों के नेता कहलाए लेकिन धार्मिक एतबार में उनकी अहमियत कोई खास नहीं थी। जहां तक इस्लामी कानून की व्याख्या का सवाल है सुन्नी मुसलमान मुख्य रूप से चार समूहों में बंटे हैं, हालांकि पांचवां समूह भी है जो इन चारों से खुद को अलग कहता है। इन पांचों के विश्वास और आस्था में भी बहुत अंतर नहीं है लेकिन इनका मानना है कि, उनकी इमाम और धार्मिक नेता ने इस्लाम की सही व्याख्या की है। दरअसल सुन्नी इस्लाम में इस्लामी कानून की चार प्रमुख स्कूल हैं आठवीं और नौवीं सदी में लगभग 150 साल के अंदर चार प्रमुख धार्मिक नेता पैदा हुए। उन्होंने इस्लामी कानून की व्याख्या की और फिर आगे चल कर उनके माननेवाले उस फिरके के समर्थक बन गए। ये चार इमाम थे इमाम अबू हनीफा 699 से 767 ईस्वी तक, इमाम शाहशाई 767 से 800 ईस्वी तक, इमाम हंबल 780 से 855 ईस्वी तक और इमाम मलिक 711 से 795 ईस्वी तक। इमाम अबू हनीफा को मानने हनफी कहलाती हैं। इसी या इस्लामी कानून के मानने वाले मुसलमान भी दो गुटों में बंटे हुए हैं। एक देवबंदी है तो दूसरी अपने आपको बरेलवी कहते हैं। देवबंदी और बरेलवी दोनों ही नाम उत्तर प्रदेश के दो जिलों देवबंद और बरेली के नाम पर हैं। दरअसल 20वीं सदी के शुरू में दो धार्मिक नेता मौलाना अशरफ अली थानवी 1863 से 1943 और अहमद रजाक खान बरेलवी 1856 से 1921 में इस्लामी कानून की अलग-अलग व्याख्या की। अशरफ अली थानवी का संबंध दारुल उलूम देवबंद मदरसा से था जबकि आला हजरत अहमद रजा खान बरेलवी का संबंध बरेली से था।

मौलाना अब्दुल रशीद गंगोह ही और मौलाना कासिम ननोत्री मे 1867 में देवबंद मदरसे की बुनियाद रखी थी। देवबंदी विचारधारा को परवान चढ़ाने में मौलाना अब्दुल रशीद गंगोहही, मौलाना कासिम नंबूदरी और मौलाना अशरफ अली थानवी की अहम भूमिका रही है। उपमहाद्वीप यानी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में रहने वाले अधिकांश मुसलमानों का संबंध इन्हीं दो पंतों से है।

देवबंदी और बरेलवी विचारधारा के मानने वालों का दावा है, कि कुरान और हदीस ही उनकी शरियत का मूल स्रोत है लेकिन इस पर अमल करने के लिए इमाम का अनुसरण करना जरूरी है, इसलिए शरीयत के तमाम कानून इमाम अबू हनीफा की फिक्र के अनुसार हैं। वहीं बरेलवी विचारधारा के लोग अल्लाह रजा खान बरेलवी के बताए हुए तरीके को ज्यादा सही मानते हैं। बरेली में आला हजरत रजा खान की मजार है जो बरेलवी विचारधारा के मानने वालों के लिए एक बड़ा केंद्र है। दोनों में कुछ ज्यादा फर्क नहीं लेकिन कुछ चीजों में मतभेद हैं। जैसे ही बरेलवी इस बात को मानते हैं कि, “पैगम्बर मोहम्मद सब कुछ जानते हैं जो दिखता है वो भी और जो नहीं दिखता वो भी, वो हर जगह मौजूद है और सब कुछ देख रही हैं”। वहीं देवबंदी इसमें विश्वास नहीं रखते, देवबंदी “अल्लाह के बाद नबी को दूसरे स्थान पर रखते हैं, लेकिन उन्हें इंसान नहीं मानती”। बरेलवी सूफी इस्लाम की अनुयायी हैं और उनके यहां सूफी मजारों को काफी महत्व प्राप्त है जबकि देवबंदियों के पास इन मजारों की बहुत अहमियत नहीं है बल्कि वो इसका विरोध करती हैं।

मालिकी
इमाम अबू हनीफा के बाद सुन्नियों के दूसरे इमाम इमाम मालिक हैं जिनके मानने वाले एशिया में कम हैं। इसकी एक महत्वपूर्ण किताब “ईमाम मुक्ता” के नाम से प्रसिद्ध है। उनके अनुयायी उनके बताए नियमों को ही मानते हैं। यह समुदाय आमतौर पर मध्य पूर्व एशिया और उत्तरी अफ्रीका में पाए जाते हैं।

शाहफई
शाहफई इमाम मालिक के शिष्य हैं, और सुन्नियों के तीसरे प्रमुख इमाम हैं। मुसलमानों का एक बड़ा तबका उनके बताए रास्तों पर अमल करता है जो ज्यादातर मध्य पूर्व एशिया और अफ्रीकी देशों में रहता है। आस्था के मामले में ये दूसरों से बहुत अलग नहीं हैं लेकिन इस्लामी तौर तरीकों के आधार पर यह हनफी से अलग है। उनके अनुयायी इस बात में विश्वास रखते हैं कि, इमाम का अनुसरण करना जरूरी है।

हमबली
हमबली सऊदी अरब, कतर, कुवैत, मध्य पूर्व और कई अफ्रीकी देशों में भी मुसलमान इमाम हंबल की फिकत पर ज्यादा अमल करते हैं और वे अपने को हमबली कहती हैं। सऊदी अरब की सरकारी शरीयत इमाम हंबल की धार्मिक कानूनों पर आधारित है। उनके अनुयायियों का कहना है, कि उनका बताया हुआ तरीका हदीसों से अधिक करीब है। इन चारों इमामों को मानने वाले मुसलमानों का ये मानना है कि, शरीयत का पालन करने के लिए अपने -अपने इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है।

सलफी वहाबी और अहले हदीस
सुन्नियों में एक समूह ऐसा भी है जो किसी एक ख़ास इमाम के अनुसरण की बात नहीं मानता। उनका कहना है कि, शरीयत को समझने और उसका सही ढंग से पालन करने के लिए सीधे कुरान और हदीस यानी पैगंबर मुहम्मद के कहे हुए शब्द का अध्ययन करना चाहिए। इसी समुदाय को सलफी और अहले हदीस और वहाबी आदि के नाम से जाना जाता है। यह संप्रदाय चार इमामों के ज्ञान उनके शोध अध्ययन और उनके साहित्य की कद्र करता है लेकिन उसका कहना है कि इन इमामों में से किसी एक का अनुसरण अनिवार्य नहीं है। उनकी जो बातें कुरान और हदीस के अनुसार हैं उसपर अमल तो सही है लेकिन किसी भी विवादास्पद चीज़ में अंतिम फैसला कुरान और हदीस का मानना चाहिए।

सलफी समूह का कहना है कि, वो ऐसे इस्लाम का प्रचार चाहता है जो पैगंबर मोहम्मद के समय में था। इस सोच को परवान चढ़ाने का सेहरा 1263 से 1328 और मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब 1703 से 1792 के सर बांधा जाता है और अब्दुल वह्हाब के नाम पर ही यह समुदाय वहाबी नाम से भी जाना जाता है। मध्यपूर्व के अधिकांश इस्लामिक विद्वान उनकी विचारधारा से ज्यादा प्रभावित हैं। इस समूह के बारे में एक बात बड़ी मशहूर है कि ये सांप्रदायिक तौर पर बेहद कट्टरपंथी और धार्मिक मामलों में बेहतर हैं। सऊदी अरब की मौजूदा शासक इसी विचारधारा को मानती हैं। अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन भी सलफी विचारधारा की समर्थक थी।

सुन्नी बोहरा गुजरात महाराष्ट्र और पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मुसलमानों के कारोबारी समुदाय के एक समूह को वोहरा के नाम से जाना जाता है। बोहरा शिया और सुन्नी दोनों होते हैं। सुन्नी बोहरा हनफी इस्लामी कानून पर अमल करते हैं जबकि सांस्कृतिक तौर पर दाऊदी बोहरा यानी शिया समुदाय के करीब हैं।

अहमदिया हनफी इस्लामी कानून का पालन करने वाले मुसलमानों का एक समुदाय अपने आपको अहमदिया कहता है। इस समुदाय की स्थापना भारतीय पंजाब के कादियान में मिर्जा गुलाम अहमद ने की थी। इस पंथ के अनुयायियों का मानना है कि, मिर्जा गुलाम अहमद खुद नबी का ही एक अवतार थे। उनके मुताबिक वे खुद को ही नहीं शरीयत नहीं लाए बल्कि पैगंबर मोहम्मद की शरीयत का ही पालन कर रहे हैं लेकिन नबी का दर्जा रखते हैं। मुसलमानों के लगभग सभी संप्रदाय इस बात पर सहमत हैं कि मोहम्मद साहब के बाद अल्लाह की तरफ से दुनिया में भेजे गए दूतों का सिलसिला खत्म हो गया है लेकिन अहमदियों का मानना है कि, मिर्जा गुलाम अहमद ऐसे धर्म सुधारक थे जो नबी का दर्जा रखते हैं। बस इसी बात पर मतभेद इतने गंभीर हैं कि, मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग अहमदियों को मुसलमान ही नहीं मानता। हालांकि भारत पाकिस्तान और ब्रिटेन में अहमदियों की अच्छी खासी संख्या है। पाकिस्तान में तो आधिकारिक तौर पर अहमदियों को इस्लाम से खारिज कर दिया गया है।

शिया मुसलमानों की धार्मिक आस्था और इस्लामी कानून सुन्नियों से काफी अलग हैं। वो पैगंबर मोहम्मद के बाद ख़लीफ़ा नहीं बल्कि इमाम नियुक्त किए जाने के समर्थक हैं। उनका मानना है कि, पैगंबर मोहम्मद की मौत के बाद उनके असल उत्तराधिकारी उनके दामाद हज़रत अली थे। उनके अनुसार पैगंबर मुहम्मद भी अली को ही अपना वारिस घोषित कर चुके थे, लेकिन धोखे से उनकी जगह हज़रत अबू बकर को नेता चुन लिया गया। शिया मुसलमान मोहम्मद के बाद बने तीन ख़लीफ़ा को अपना नेता नहीं मानते बल्कि उन्हें गॉसिप कहते हैं। गॉसिप अरबी का शब्द है जिसका अर्थ “हड़पने वाला” होता है उनका विश्वास है कि जिस तरह अल्लाह ने मुहम्मद साहब को अपना पैगंबर बनाकर भेजा था उसी तरह से उनके दामाद अली को भी अल्लाह ने ही इमाम या नबी नियुक्त किया था और फिर इस तरह से उन्हीं की संतानों से इमाम होते रहे। आगे चलकर शिया भी कई हिस्सों में बंट गए।

इस्ना आशनी
इतना ही सुन्नियों की तरह शियाओं में भी कई संप्रदाय हैं लेकिन सबसे बड़ा समूह इस्ना आशनी यानी बारह इमामों को मानने वाला समूह है, दुनिया की लगभग 75 प्रतिशत शिया समुदाय से संबंध रखती हैं। इस्ना आशनी समुदाय का कलमा सुन्नियों की कलमे से भी अलग है। उनके पहले इमाम हजरत अली हैं और अंतिम यानी बारहवें इमाम ज़माना यानी इमाम महदी हैं। वो अल्लाह, कुरान और हदीस को मानते हैं लेकिन केवल उन्हीं हदीसों को सही मानते हैं जो उनके इमामों के माध्यम से आए हैं। कुरआन के बाद अली के उपदेश पर आधारित किताब नहजुल बलाग़ा और अल्काफी भी उनकी महत्वपूर्ण धार्मिक पुस्तकें हैं। यह संप्रदाय इस्लामी धार्मिक कानूनों के मुताबिक जाफरीया में विश्वास रखता है। ईरान, इराक, भारत और पाकिस्तान सहित दुनिया के अधिकांश देशों में इस्ना आशनी शिया समुदाय का दबदबा है।

जेदिया
शियाओं का दूसरा बड़ा सांप्रदायिक समूह जेदिया है, जो बारह की बजाय केवल पांच इमामों में ही विश्वास रखता है। इसके चार पहले इमाम तो इस्ना आशनी के ही हैं, लेकिन पांचवें और अंतिम इमाम हुसैन हज़रत अली के बेटे के पोते ज़ैद बिन अली हैं जिसकी वजह से वो जेदिया कहलाती हैं। उनके इस्लामिक कानून ज़ैद बिन अली की एक किताब मजमा उलफीका से लिए गए हैं। मध्यपूर्व के यमन में रहने वाले हौसी ज़ैदीया समुदाय के मुसलमान हैं।

इस्माइली शिया
शियाओं का यह समुदाय केवल सात इमामों को मानता है और उनके अंतिम इमाम मोहम्मद बिन इस्माइल हैं और इसी वजह से उन्हें इस्माइली कहा जाता है। इस्ना आशनी शियाओं से इनका विवाद इस बात पर हुआ कि, इमाम जाफ़र सादिक़ के बाद उनके बड़े बेटे इस्माईल बिन जाफ़र इमाम होंगे या फिर दूसरे बेटे। इस्ना आशनी समूह ने उनके दूसरे बेटे मूसा काज़िम को इमाम माना और यहीं से दो समूह बन गए। इस तरह इस्माइली उन्हें अपना सातवां इमाम इस्माइल बिन जाफ़र को माना उनकी फिक्र और कुछ मान्यताएं भी इस्ना आशनी उनसे कुछ अलग हैं।

दाऊदी बोहरा
बोहरा का एक समुदाय जो दाऊदी बोहरा कहलाता है इस्माइली शिया को मानता है और इसी विश्वास पर कायम है। अंतर यह है कि दाऊदी बोहरा 21 इमामों को मानते हैं। उनके अंतिम इमाम, इमाम तैय्यब अब्दुल काज़िम थे जिसके बाद आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा है। इन्हें दाई कहा जाता है और इस तुलना में 52वें दाई सैयदना बुरहानुद्दीन रब्बानी थे 2014 में रब्बानी के निधन के बाद उनके दो बेटों में उत्तराधिकार का झगड़ा हो गया और अब मामला अदालत में है। बोहरा भारत के पश्चिमी क्षेत्र खासकर गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं जबकि पाकिस्तान और यमन में भी ये मौजूद हैं। ये एक सफल व्यापारी समुदाय है जिसका एक धड़ा सुन्नी भी है।

खोजा
खोजा गुजरात का एक व्यापारी समुदाय है जिसने कुछ सदी पहले इस्लाम स्वीकार किया था। इस समुदाय के लोग शिया और सुन्नी दोनों इस्लाम मानते हैं। ज़्यादातर खोजा इस्माइली शिया के धार्मिक क़ानून का पालन करते हैं लेकिन एक बड़ी संख्या में खोजा इस्ना आशनी शियाओं की भी है। लेकिन कुछ खोजे सुन्नी इस्लाम को भी मानते हैं। इस समुदाय का बड़ा वर्ग गुजरात और महाराष्ट्र में पाया जाता है, पूर्वी अफ्रीकी देशों में भी ये बसे हुए हैं।

नुसहरी
शियाओं का यह संप्रदाय सीरिया और मध्य पूर्व के विभिन्न क्षेत्रों में पाया जाता है। इसे अलावी के नाम से भी जाना जाता है। सीरिया में इसे मानने वाले ज्यादातर शिया हैं और देश के राष्ट्रपति बशर अल असद का संबंध इसी समुदाय से है। इस समुदाय का मानना है कि, अली वास्तव में भगवान की अवतार के रूप में दुनिया में आए थे। उनकी इसी तरह इस नाशरी में हैं लेकिन विश्वासों में मतभेद है नुसहरी पुनर्जन्म में भी विश्वास रखते हैं और कुछ ईसाइयों की रस्में भी उनके धर्म का हिस्सा हैं। इन सबके अलावा भी इस्लाम में कई छोटे छोटे पंथ पाए जाते हैं।