महान सम्राट हर्षवर्धन का इतिहास |
ईसा के जन्म के 500 साल बाद उत्तर भारत के हरियाणा में एक शक्तिशाली राज्य का जन्म हुआ, जिसका नाम था थानेश्वर। राज्य में राजा प्रभाकर वर्धन राज करते थे। वे बड़े वीर पराक्रमी और योग्य शासक थे। राजा प्रभाकर वर्धन ने महाराज के स्थान पर महाराजाधिराज और परम बटलर की उपाधि धारण की थी। साल 570 ईस्वी तक राजा प्रभाकर वर्धन ने मालवा गुर्जरों और हूणों पर लगातार हमले किए। इन हमलों में राजा को अकूत सम्मान और विजय मिली, किन्तु राज्य की उत्तर पश्चिमी सीमा पर कभी कबार हूणों के छुटपुट उपद्रव होते रहती थी। पर राजा प्रभाकर वर्धन अपने समय के एक महान योद्धा सिद्ध हुए। यह हूणों पर तो कहर बनकर टूट पड़ते थे। इन्हीं युद्धों से जूझते हुए उत्तर भारत की सरहदें अब एक नई करवट लेने वाली थी।
![राजा हर्षवर्धन महान हिन्दू राजा](https://dailygoodnews.in/wp-content/uploads/2021/10/harsha-vardhana-the-great-hindu-emperor-300x176.png)
महान कहे जाने वाले साम्राज्यों को अब थानेश्वर के सामने नजरें झुका ली थी, क्योंकि अब एक महान योद्धा शूरवीर का जन्म होना था जिसका नाम था वीर विराट सम्राट हर्षवर्धन। दरअसल गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारतीय राजनीति उथल पुथल हो चुकी थी। चीन के जंगलों की तरफ से आई विदेशी सेनाओं ने अपनी तलवारों के बल पर भारत भूमि पर अधिकारी स्थापित करने की फिराक में थी। इस समय भारत की सरहदों की रक्षा करने वाला कोई वीर नहीं था और यही समय था जब राजा प्रभाकर वर्धन की अर्धांगिनी रानी यसोमति ने गर्भ धारण किया। इसी गर्भ से साल 590 ईस्वी में एक शूरवीर परम तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। यही बालक आगे चलकर भारत के इतिहास में सम्राट हर्षवर्धन के नाम से विख्यात हुआ।
कौन है ये दिव्य पुरुष जिसे हम इतना सम्मान दे रहे हैं। सम्राट हर्षवर्धन अपनी खेलने कूदने की उम्र में ही राजा बन चुके थीं। इस समय उन्होंने एक विशाल सेना को परास्त करके अपने बड़े भाई की मौत का बदला लिया। यही सम्राट हर्ष थे जिन्होंने पंजाब को छोड़कर संपूर्ण उत्तर भारत पर अपनी जीत की विजयी पताका फहराई। हर्ष को सबसे बड़ी टक्कर दक्षिण भारत के महान योद्धा सम्राट पुलके सिंह ने दी थी।
![राजा हर्षवर्धन के हस्ताक्षर](https://dailygoodnews.in/wp-content/uploads/2021/10/Autograph_King_harsha-vardhana-300x90.jpg)
सम्राट हर्षवर्धन के एक बड़े भाई राज्यवर्धन वर्धन थे और राजाश्री नाम की एक छोटी बहन भी थी। इन तीनों भाई बहनों में अगाध प्रेम था। समय की चुनौतियों से मात खाते हुई एक समय ऐसा आया जब धनेश्वर के महान राजा प्रभाकर वर्धन की मृत्यु हो गई। राजा की मृत्यु के बाद बड़े पुत्र राजीव वर्धन को धनेश्वर राज्य का महाराजाधिराज घोषित कर दिया गया। इसी मौके के इंतजार में बठे बंगाल के राजा शशांक और मालवा के राजा देवगुप्त ने धनेश्वर राज्य पर अति भयभीत करने वाला हमला किया। राजा शशांक एक अति वीर बाहुबलि योद्धा थे, जिनकी ताकत के चर्चे नगर नगर में फैले हुए थे।
इस समय राजा शशांक को रोकने की हिम्मत करने वाला कोई भी वीर नहीं था। राजा शशांक ने धनेश्वर राज्य के राजा राज्यवर्धन को मौत के घाट उतार दिया। पिता और पुत्र के देवलोक गमन के बाद अब थानेश्वर राज्य की सत्ता बालक हर्ष की ओर देख रही थी और यही समय था जब 606 इस्वी मे 16 साल की बालक अवस्था में सम्राट हर्षवर्धन का धनेश्वर राज्य के राजसिंहासन पर राजतिलक किया गया।
![राजा हर्षवर्धन का साम्राज्य](https://dailygoodnews.in/wp-content/uploads/2021/10/harsha-vardhana-kingdom-size-300x169.jpg)
राजा बनते ही हर्ष के मन में अपने बड़े भाई की मौत का बदला लेने की आग धधक रही थी। इसी के साथ बालक हर्षवर्धन ने कन्नौज और थानेश्वर राज्यों का एकीकरण करके कन्नौज को अपनी राजधानी बनाई और अपनी बहन का विवाह मुंगेरी के राजा ग्रहोंवर्मन से करवा चुकी थी। अब हर्ष ने युद्ध को अपना साथी चुन लिया था। इसी के साथ उन्होंने मालवा पर हमला करके मालवा के शासक देवगुप्त से उसका संपूर्ण राज्य छीन लिया। इसी जीत के बाद उन्होंने राजा शशांक पर भयभीत करने वाला हमला किया। इसी भयानक हमले में राजा शशांक की युद्ध के मैदान से गोवंडी इलाके की तरफ भाग दिया। इन्हीं हमलों में हर्ष की जीत के बाद संपूर्ण भारत में सम्राट हर्षवर्धन की ख्याति फैलने लगी।
इतिहास के पन्ने बताते हैं कि, सम्राट ने अपनी लगातार जीतों के बाद एक लाख की विशाल सेना और 60 हजार हाथियों की महा सेना का निर्माण किया। इसी सेना के साथ सम्राट हर्षवर्धन ने अपना विजय अभियान शुरू किया। उन्होंने मगध, कश्मीर, गुजरात और सिंध पर ताबड़तोड़ दावों के साथ अपनी विजय के झंडे बुलंद किए। सम्राट हर्ष ने संपूर्ण उत्तर भारत पर अपना दबदबा कायम कर लिया था। जल्द ही हर्ष वर्धन का साम्राज्य गुजरात से लेकर आसाम तक और कश्मीर से लेकर नर्मदा नदी के दक्षिण तक फैल गया। सम्राट ने आर्यावर्त को भी अपने अधीन कर लिया था। हर्ष के कुशल शासन से भारत तरक्की की ऊंचाइयों को छू रहा था और उसके शासनकाल में भारत ने आर्थिक रूप से बहुत प्रगति की थी। इतने विशाल साम्राज्य के अधिपति सम्राट हर्षवर्धन की निगाहें अब दक्षिण भारत की तरफ थीं।
पर दक्षिण में सम्राट हर्षवर्धन की टक्कर का एक महा योद्धा राज करता था जिसका नाम था पुलकेसिंह द्वितीय। पुलकेसिंह अपने काल का महा सूरमा था। चालुक्य शासक पुलकित सिंह द्वितीय तरह- तरह की युद्ध नीतियों की जानकार थे। उनको हरा पाना मात्र एक स्वप्न के समान था, पर सम्राट हर्षवर्धन ने इन सब बातों को ताक पर रखकर पुलकेसिंह महान पर हमला कर दिया। दक्षिण विजय अभियान पर निकले सम्राट हर्ष की सेना को पुलकित द्वितीय की सेना से कांटे की टक्कर मिली। पुलकेसिंह ने सम्राट हर्षवर्धन को ऐसा करारा जवाब दिया कि, सम्राट ने भविष्य में कभी भी दक्षिण विजय के बारे में नहीं सोचा।
चीन से थे बेहतर संबंध
महाराज हर्ष ने 641 में एक ब्राह्मण को अपना दूत बनाकर चीन भेजा। 643 में चीनी सम्राट ने लियान वाइकिंग नाम के दूध को हर्ष के दरबार में भेजा, लगभग 646 में एक चीनी दूत मंडल लीन पिया और वांग सह के नेतृत्व में सम्राट हर्षवर्धन के दरबार में आया। इतिहास के मुताबिक चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेनसांग महराज के राज दरबार में आठ साल तक उनकी दोस्त की तरह रहे। तीसरे दूत मंडल के भारत पहुंचने से पूर्व ही साल 647 में सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु हो गई।
सम्राट हर्षवर्धन की अपनी पत्नी दुर्गावती से दो पुत्र थे वागयवर्धन और कल्याणर्धन। उनके दोनों बेटों की अरुणास्त्रा नामक मंत्री ने हत्या कर दी। इस वजह से हर्षवर्धन का कोई भी वारिस जिंदा नहीं बचा। हर्ष उसके मरने के बाद उनका साम्राज्य भी धीरे- धीरे बिखरता चला गया और फिर एक समय उनका संपूर्ण साम्राज्य समाप्त हो गया। सभी धर्मों का सम्मान करने वाले हर्षवर्धन ने ही प्रयाग का मशहूर कुंभ मेला शुरू करवाया था। प्रयाग में हर साल होने वाला कुंभ मेला जो सदियों से चला आ रहा है और हिन्दू धर्म के प्रचारकों के बीच काफी प्रसिद्ध है। माना जाता है कि, वो राजा हर्ष ने ही शुरू करवाया था। माना जाता है कि, सम्राट हर्षवर्धन ने अरब पर भी चढ़ाई कर दी थी, लेकिन रेगिस्तान के क्षेत्र में उनको रोक दिया गया। इसका उल्लेख भविष्य पुराण में मिलता है। सम्राट हर्षवर्धन एक गंभीर कूटनीतिक, बुद्धिमान व अखंड भारत की एकता को साकार करने के स्वप्न को संजोने वाला राजनीतिज्ञ था। इसका विश्लेषण बड़े परमाणो के साथ इतिहासकार विजय नाहर की ग्रंथि शिला आदित्य सम्राट हर्षवर्धन ने उनका युद्ध में उपलब्ध हैं।