महान सम्राट विक्रमादित्य का इतिहास
एक और ऐतिहासिक व्यक्तित्व लेकर आज हम जिस व्यक्तित्व का आप से परिचय कराने जा रहे हैं उन्हें इतिहास एवं भारत वर्ष महान सम्राट विक्रमादित्य के नाम से जानता है। भारत में चक्रवर्ती सम्राट से कहा जाता है जिसका कि संपूर्ण भारत में राज रहा हो। ऋषभदेव के पुत्र राजा भरत पहले चक्रवर्ती सम्राट थे। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य बीच चक्रवर्ती सम्राट थे। विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। विक्रम – बेताल और सिंहासन बत्तीसी की कहानियां महान सम्राट विक्रमादित्य से ही जुड़ी हुई हैं। विक्रम संवत अनुसार विक्रमादित्य आज से 2288 वर्ष पूर्व पैदा हुए थे।
नाभावान के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। राजा गंधर्वसेन का एक मंदिर मध्यप्रदेश के सोनकच्छ के आगे गंधर्वपुरी में बना हुआ है। यह जगह बहुत ही रहस्यमय गांव कहलाता है। उनके पिता को महेंद्र दैत्य भी कहते हैं। उनके और भी नाम थे जैसे गर्द भेल या गंधार प्रवेश। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भरथरी थे। विक्रम की माता का नाम सौम्य दर्शना था जिन्हें बीरमती और मदन रेखा भी कहते हैं। उनकी एक बहन थी जिसे मैना अवंती कहते हैं। उनके भाई भरथरी के अलावा उनके और भी परिवार में सदस्य थे। विक्रमादित्य की पांच पत्नियां थीं। मायावती, मदन लिखा, पद्मिनी, चेल और छील महादेवी। उनके दो पुत्र विक्रम चरित और विनयपाल थे और दो पुत्रियां प्रियंग मंजरी और वसुन्धरा थीं। गोपीचंद नाम का उनका एक भांजा था। प्रमुख मित्रों में भटमात्र का नाम आता है राजपुरोहित। त्रिविक्रम और वसु मित्र थे। मंत्री बंटी और बहस हिन्दु थे। सेनापति विक्रम शक्ति और चंद्र थे।
कलिकाल के तीन हजार वर्ष बीत जाने पर एक साथ एक ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उन्होंने सौ वर्ष तक राज किया। विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जैन के राजसिंहासन पर बैठे, विक्रमादित्य अपने ज्ञान वीरता और उदार शीलता के लिए प्रसिद्ध थे। जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। कहा जाता है कि, विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था। सम्राट विक्रमादित्य अपने राज्य की जनता के कष्टों और उनके हालचाल जानने के लिए वेश बदलकर नगर में भ्रमण करते थे। राजा विक्रमादित्य अपने राज्य में न्याय व्यवस्था कायम रखने के लिए हर संभव प्रयास करते थे। इतिहास में वे सबसे लोकप्रिय और न्यायप्रिय राजाओं में से एक माने गए हैं।
कहा जाता है कि, मालवा में विक्रमादित्य के भाई भरथरी का शासन था। भरथरी के शासनकाल में शकों का आक्रमण बढ़ गया था। भरथरी ने वेराग्य धारण कर जब राज्य त्याग दिया तो विक्रम ने शासन संभाला और उन्होंने इसा पूर्व 57 से 58 में सबसे पहले शकों को अपने शासन क्षेत्र से बाहर खदेड़ दिया। इसी की याद में उन्होंने विक्रम संवत की शुरूआत कर अपने राज्य के विस्तार का आरंभ किया। विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्त कराने के लिए एक वृहत्तर अभियान चलाया। कहते हैं कि, उन्होंने अपनी सेना को फिर से गठित किया। उनकी सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बताई गई है। जिसने भारत की सभी दिशाओं में एक अभियान चलाकर भारत को विदेशियों और अत्याचारी राजाओं से मुक्ति का एक छत्र शासन को कायम किया।
कल्हण की “राजतरंगिणी” किताब के अनुसार 14 इस्वी के आसपास कश्मीर में आन्ध्र युद्धिष्ठिर वंश के राजा हिरण्य के नि:संतान मारे जाने पर अराजकता फैल गई। इसको देखकर वहां के मंत्र की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मात्रगुप्त को कश्मीर का राज सम्हालने के लिए भेजा था। नेपाली राज वंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशु वर्मन के समय में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है। राजा विक्रम का भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्ध मागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
विक्रमादित्य और उनके नवरतन
नवरत्नों को रखने की परंपरा महान सम्राट विक्रमादित्य से ही शुरू हुई है, जिसे तुर्क बादशाह अकबर ने भी अपनाया था।सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों के नाम धन्वंतरि, शपण, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट खटकर, कालिदास, वराहमिहिर और बलूची कहे जाते हैं। इन नवरत्नों में उच्च कोटि के विद्वान श्रेष्ठ कवि गणित के प्रकांड विद्वान और विज्ञान के विशेषज्ञ आदि सम्मिलित थे। देश में अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं जो विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित मानते हैं। इस संवत के परिवर्तन की पुष्टि ज्योतिर्विद आवरण ग्रंथ से होती है जो कि 3068 कलि अर्थात 34 इसा पूर्व में लिखा गया था। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 344 कलि अर्थात 57 इसा पूर्व विक्रम संवत चलाया।
महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्यपुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में भी वर्णन मिलता है। उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। दरअसल विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा इरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतो ने अपनी पुस्तक “सायर उल आकुल” में किया है।
पुराणों और अन्य ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार यह पता चलता कि, अरब और मिश्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे। तुर्की के इस्तांबुल शहर की प्रसिद्ध लाइब्रेरी मकतब- ए- सुल्तानिया में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है “सायर- उल –आकुल” , उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया कि, वे लोग भाग्यशाली हैं जो उस समय जन्मे और राजा विक्रमा के राज्य में अपना जीवन व्यतीत किया। वो बहुत दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया। अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वान लोगों को यहां भेजा ताकि शिक्षा का उजाला पूरे विश्व में फैल सके। इन विद्वानों और ज्ञाता ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर दुनिया के बाकी हिस्सों में जाकर शिक्षा का प्रचार प्रसार कर रहे थे।
इसके अलावा भारत में और भी सम्राट हुए हैं जिनके नाम के आगे विक्रमादित्य लगाया गया है जिनमें से हैं यथाहर्ष, सुधारक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिला द्वितीय, यशोवर्धन आदि। दरअसल आदित्य शब्द देवताओं से प्रयुक्त है। बाद में विक्रमादित्य की प्रसिद्धि के बाद राजा को विक्रमादित्य की उपाधि दी जाने लगी। विक्रमादित्य के पहले और बाद में भी और भी विक्रमादित्य हुए हैं, जिसके चलते भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300इस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय अथवा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य हुए। एक विक्रमादित्य सातवीं सदी में है जो विजय आदित्य के पुत्र थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने भी अपने समय में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा। विक्रमादित्य द्वितीय के काल में ही लाट देश पर अरबों ने आक्रमण किया। विक्रमादित्य के शोर के कारण अरबों को अपने प्रयत्नों में सफलता नहीं मिली और यह प्रतापी चालुक्य राजा और अरब आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा में समर्थ रहा। पल्लव राजा ने कुलकेसन को परास्त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्य जो कि, अपने पिता के समान महान शासक ताकत पर बैठा उसने दक्षिण के अपने शत्रु के विरुद्ध पुनः संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुनः प्राप्त किया। यहां तक कि उसका परपोते विक्रमादित्य द्वितीय भी महान योद्धा था।
753 इस्वी में विक्रमादित्य व उसके पुत्र का धनति दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्ता पलट दिया। उसने महाराष्ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्य की स्थापना की जो राष्ट्रकूट कहलाया। विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 15वीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य हुए। जिन्होंने मुगलों को खदेड़कर भारत में फिर से हिन्दू राज्य की स्थापना की, परन्तु पानीपत के दूसरे युद्ध में वह वीरगति को प्राप्त हुए और उन्हें अकबर के हाथों पराजय का मुंह देखना पड़ा। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के बाद विक्रमादित्य पंचम कल्याणी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने लगभग 1008 में चालुक्य राज्य की गद्दी को संभाला। भोपाल के राजा भोज के काल में यही विक्रमादित्य थे। विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीति का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े, उसके समय में मालवा के परमार के साथ चालुक्य का पुनः संघर्ष हुआ और वागपतिराज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज का भी हरा दिया था।