ऑपरेशन ब्लूस्टार: 6 जून 1984 को स्वर्ण मंदिर में क्या हुआ था? Operation BlueStar: What exactly happened in Golden Temple on 6th June 1984

मुजे चिनता नही है की मै जीवित रहु या नहीं रहू, मेरी लंबी उमर रही है , अगर मुजे गोरव किसी बात पर है की मेरा सारा जीवन सेवा मे गया था और जब तक मुझमे सास है तब तक सेवा करूगी और जब मेरी जान जाए गी तो मै बोल सकती हू, एक एक खून का कतरा भारत को जीवित करेगा।

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Operation BlueStar: What exactly happened in Golden Temple on 6th June 1984
Operation BlueStar: What exactly happened in Golden Temple on 6th June 1984

ऑपरेशन ब्लूस्टार: 6 जून 1984 को स्वर्ण मंदिर में क्या हुआ था?
Operation BlueStar: What happened in Golden Temple


“मुझे चिन्ता नही है की मै जीवित रहूँ या नहीं रहूँ, मेरी लंबी उम्र रही है, मगर मुझे गौरव इस बात पर है की मेरा सारा जीवन सेवा मे गया, और जब तक मुझमे सांस है तब तक सेवा करूंगी और जब मेरी जान जाएगी तो मै बोल सकती हूँ, एक एक खून का कतरा भारत को जीवित करेगा।“

कभी कभी होता है कि कुछ लोगो को अपनी मौत का अंदाजा पहले से ही हो जाता है। भारत की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ भी ऐसा ही हुआ। भुवनेश्वर में ये भाषण देने के बाद उन्हें ये खबर मिली कि दिल्ली में उनके पोते और पोती की कार का एक्सीडेंट हो गया था। वो अपनी यात्रा बीच में ही छोड़कर दिल्ली लौट आई। अगले दिन 31 अक्तूबर 1984 को एक जाने माने लेखक और अभिनेता उनका इंटरव्यू लेने वाले थे। ठीक नौ बजकर 12 मिनट पर इंदिरा गांधी ने अपने निवास और ऑफिस के बीच के गेट को पार किया। गेट पर तैनात बेअंत सिंह को देखकर मुस्कुराई, लेकिन बेअंत ने अपनी रिवॉल्वर निकालकर उन पर फायर करना शुरू कर दिया। जैसे ही वो जमीन पर गिरी, दूसरे गेट पर तैनात सतवंत सिंह ने भी अपनी गन की पूरी मैगजीन उनके ऊपर खाली कर दी। उन दोनों ने पांच महीने पहले भारतीय सेना द्वारा स्वर्ण मंदिर पर किए गए हमले का बदला ले लिया था।

Operation BlueStar: What exactly happened in Golden Temple on 6th June 1984
Operation BlueStar: What exactly happened in Golden Temple on 6th June 1984

31 मई 1984 की शाम मेरठ की नौ इन्फैन्ट्री डिवीजन के कमांडर मेजर जनरल कुलदीप बुलबुल बराड़ अपनी पत्नी के साथ दिल्ली जाने की तैयारी कर रहे थे।

“शाम को मेरे पास एक टेलीफोन कॉल आया कि अगले दिन सुबह मुझे चंडीगढ़ पहुंचना है, एक मीटिंग के लिए। मेरठ से दिल्ली, रोड के रास्ते, और वहाँ से प्लेन लेकर चंडीगढ़ पहुंचा और वेस्टर्न कमांड हेडक्वॉर्टर में गया। जब वहाँ पहुंचा तो मुझे खबर मिली कि, मुझे ऑपरेशन ब्लू स्टार कमांड करना है, और अमृतसर जल्दी से जल्दी जाना है क्योंकि हालात बहुत खराब हो गए है। भिंडरावाले ने गोल्डन टेम्पल के ऊपर कब्जा कर लिया है, और पंजाब में कोई लॉं एंड ऑर्डर नहीं रहा है। तो जल्दी से जल्दी इस सिचुएशन को ठीक करना है। नहीं तो पंजाब अपने हाथ से निकल जाएगा। मेरी छुट्टी कैन्सल हो गई और मैं तुरंत हवाई जहाज में बैठ कर अमृतसर पहुंचा।“

भिंडरावाले को कांग्रेसियों ने ही बढ़ावा दिया था। उनको बढ़ावा देने के पीछे मकसद यही था कि अकालियों के सामने सिखों की मांग उठाने वाले किसी ऐसे व्यक्ति को खड़ा किया जाए जो उनको मिलने वाले समर्थन में सेंध लगा सके। भिंडरावाले विवादास्पद मुद्दों पर भड़काऊ भाषण देने लगे और धीरे धीरे उन्होंने केंद्र सरकार को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया। पंजाब में हिंसा की घटनाएं बढ्ने लगीं। 1982 में भिंडरावाले मेहता चौक गुरुद्वारा छोड़, पहले स्वर्ण मंदिर में गुरु नानक निवास, और उसके कुछ महीनों बाद अकाल तख्त से अपने विचार व्यक्त करने लगे।

वरिष्ठ पत्रकार और पहले बीबीसी के लिए काम करने वाले सतीश जैकब को भी कई बार भिंडरावाले से मिलने का मौका मिला।

“भिंडरावाले से एक बार मेरी बहुत लंबी चौड़ी बात अकेले में हुई। हम दोनों स्वर्ण मंदिर की सबसे ऊपर की छत पर बैठे हुए थे, तो मैंने ऐसे ही बातों बातों मे उन से पूछा, ‘ये जो कुछ आप कर रहे हैं, एक दिन ऐसा होगा कि आपके सामने कोई ऐक्शन जरूर होगा।’ तो उन्होंने मुझे बड़ी सादगी से कहा कि. ‘अरे क्या एक्शन होगा?’ उन्होंने छत से मुझे इशारा करके कहा, ‘देखो वो सामने खेत नजर आ रहे हैं, यहा से बस सात आठ किलोमीटर का रास्ता है, और वहाँ पर बार्डर है। हम पीछे से निकल जायेगे। आराम से बार्डर पार करके पाकिस्तान चले जाएंगे।’“

4 जून 1984 को भिंडरावाले के लोगों की पोजिशन का जायजा लेने के लिए एक अधिकारी को सादे कपड़ों में स्वर्ण मंदिर के अंदर भेजा गया। 5 जून की सुबह जरनल बराड़ ने ऑपरेशन में भाग लेने वाले सैनिकों को उनके ऑपरेशन के बारे में ब्रीफ किया।

“5 तारीख के सुबह साढ़े चार बजे के करीब मैंने हर एक बटालियन के पास जाकर करीब आधा घंटा उनके जवानों के साथ बात की। उनको मैंने ये बताया कि हालात कितने खराब हो गए हैं, और ये अपना स्वर्ण मंदिर है। हमको ये नहीं सोचना चाहिए कि हम किसी पवित्र स्थान के अंदर जा के उसको बर्बाद कर रहे हैं, बल्कि हम सफाई कर रहे हैं। हमें ये ध्यान रखना है की जितनी कैजुअल्टी कम हो सकती है उतनी कम होनी चाहिए। और बेवजह नुकसान नहीं होना चाहिए। गोल्डन टेम्पल के बारे मे हमको ये नहीं सोचना है कि हम हिन्दू है या मुसलमान या सिख हैं।” मैंने साथ उनसे ये भी कहा कि, “अगर कोई जवान इतना सोचता है कि मुझे अंदर नहीं जाना है तो कोई बात नहीं, आप खड़े हो जाओ और मैं आपके कमांडिंग ऑफिसर से कहूंगा कि आपको अंदर जाने की ज़रूरत नहीं है और आपके ऊपर कोई एक्शन नहीं लिया जाएगा।”

“पहले बटालियन में मैं गया, वहाँ कोई भी खड़ा नहीं हुआ। दूसरे और तीसरे में भी कोई भी कोई खड़ा नहीं हुआ। चौथी बटालियन में एक सिख ऑफिसर खड़े हो गए। मैंने कहा कोई बात नहीं बेटा, आप को अंदर जाने की ज़रूरत नहीं है। अगर आपके फीलिंग इतनी स्ट्रॉन्ग है, आपके ऊपर कोई एक्शन नहीं लिया जाएगा।”

Operation BlueStar: What exactly happened in Golden Temple on 6th June 1984
Operation BlueStar: What exactly happened in Golden Temple on 6th June 1984

उसने कहा, “साहब! आप मुझे गलत समझ रहे हो। मैं सेकंड लेफ्टिनेंट रैना अंदर जाना चाहता हूं और मुझे सबसे आगे अंदर भेजिए।” मैंने कहा, “शाबाश! आप बहुत ही बहादुर जवान हो।” और मैंने उनके कमांडिंग ऑफिसर को ऑर्डर दिया, “इनकी प्लाटून सबसे पहले स्वर्णमंदिर में जाएगी।” और उसकी प्लाटून सबसे पहले अंदर गई। वहाँ मशीनगन फायर होने लगी, उनकी दोनों टांगें टूट गई, खून बह रहा था। उनके कमांडिंग ऑफिसर कह रहे थे, “मैं इनको रोकने की कोशिश कर रहा हूं, ये रुक नहीं रहे, घिसटते हुए जा रहे है, अकाल तख्त की तरफ।” मैंने कहा, “आप जबरदस्ती उनको उठा के वापस लाइए बाहर।” उसके पैर खराब हो गए और उसकी बहादुरी के लिए मैंने उसको अशोक चक्र दिलवाया।

दस बजे के आसपास सामने से हमला बोला गया, काली वर्दी पहनी पहली बटालियन और पैराशूट रेजिमेंट के कमांडो को निर्देश दिया गया कि वो परिक्रमा कि तरफ बढ़े, दाहिनी मुड़े और जितनी जल्दी संभव हो सरोवर की छोर तक पहुँच कर अकाल तख्त की ओर कदम बढ़ाए। लेकिन जैसे ही कमांडो आगे बढ़े उन पर तीनो तरफ से ऑटोमेटिक हथियारों से जबरदस्त गोलीबारी की गई। कुछ ही कमाण्डो इस जवाबी हमले में बच पाए। उनकी मदद करने आए लेफ्टिनेंट कर्नल इसरार रहीम खाँ के नेतृत्व में 10वीं बटालियन के गार्ड्स ने सीढिय़ों के दोनों ओर मशीनगन ठिकानों को निष्क्रिय किया
लेकिन उनके ऊपर सरोवर के दूसरी तरफ से जबरदस्त गोलीबारी होने लगी। कर्नल इसरार खाँ ने सरोवर के उस पार भवन पर गोली चलाने की अनुमति मांगी लेकिन उसे अस्वीकार कर दिया गया। कहने का मतलब यह कि सेना को जिस विरोध का सामना करना पड़ा उन्होंने उसकी कल्पना भी नहीं की थी।

वो तो 45 मिनट में जा कर समझ आया की इनकी प्लानिंग, इनके हथियार इतने ज्यादा है कि ये काम आसान नहीं होगा। क्योंकि हम चाहते थे कि अकाल तख्त के तरफ कमांडो जाए और हम लोग अकाल तख्त के अंदर स्टन ग्रेनेड फेंके। स्टन ग्रेनेड की गैस से आदमी मरता नहीं है। उसके सिर में दर्द होने लगता है, आंखों में पानी आ जाता है, और वो ठीक से देख नहीं पाता है। उतने में हमारे जवान अंदर चले जाए। लेकिन जब ये ग्रेनेड फेंकते थे तो कोई रास्ता ही नहीं था अंदर जाने का, हर एक खिड़की हर एक दरवाजे के ऊपर मिट्टी के बैग लगे हुए थे। तो ग्रेनेड दीवारों पर टकरा के नीचे परिक्रमा पर आ रहे थे और हमारे ही जवानों के ऊपर गिर रहे थे।

सिर्फ उत्तरी और पश्चिमी छोर से ही सैनिकों पर फायरिंग नहीं हो रही थी बल्कि पृथकतावादी जमीन के नीचे मेन होल से निकलकर मशीन गन से फायर कर अंदर ही गायब हो जा रहे थे। जब सैनिकों का बढ़ना रुक गया तो जनरल बराड़ ने आर्मर्ड पर्सनल कैरियर (एपीसी) के इस्तेमाल करने का फैसला लिया। लेकिन जैसे ही एपीसी अकाल तख्त की तरफ बढ़ा उसे चीन में बने रॉकेट लॉन्चर से उड़ा दिया गया। जिस तरह से चारों तरफ से चल रही गोलियों से भारतीय जवान धाराशाही हो रहे थे जनरल बराड़ को मजबूर होकर टैंकों की मांग करनी पड़ी।

मैंने जनरल बराड़ से पूछा कि, “क्या टैंकों का इस्तेमाल पहले से आपकी योजना में था?”
“नहीं। बिल्कुल नहीं था। ये तो एकदम बुलाए गए जब देखा के अकाल तख्त के नजदीक कोई आदमी जा नहीं सकता था तो हम लोग कैसे पहुँचेंगे? क्योंकि थोड़ी देर में सुबह हो जाएगी और सुबह सैंकड़ों लोग आ जाएंगे चारों तरफ से। और टैंकों का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए करना था, की उसकी जो लाइट है, जीनॉन बल्ब है या हैलोजन बल्ब है, बहुत पावरफुल बल्ब है, और उन लाइट को ऑन करें ताकि अकाल तख्त में जो लोग हैं उनकी आंखों में वो लाइट जाए और वो चंद सेकंड या मिनट के लिए कुछ देख न पाए और निशाना ना ले सकें। जिस से हमारे लोग नजदीक पहुंच पाएँ। लेकिन अफसोस ये था कि वो जो बल्ब है 20, 30 या 40 सेकंड जलते हैं फिर फ्यूज हो जाते हैं। तो फ्यूज होने के बाद टैंक को वापस ले गए और दूसरा टैंक ले आए और फिर उसकी लाइट ऑन किया। टैंक का इस्तेमाल लाइट के लिए कर रहे थे। लेकिन जब कुछ भी मुमकिन नहीं हो रहा था लाइट के साथ, सुबह जब रोशनी होने लगी और देखा कि अकाल तख़्त अभी तक बहुत बुरी तरह लड़ रहा है, तो हुकुम दिया गया कि टैंक के जो सेकेंडरी हथियार है उनके साथ अकाल तख्त के ऊपर वाले हिस्से पर फायर किया जाये। ताकि जब वहां फायरिंग हो और ऊपर के पत्थर को नीचे गिरे, तो शायद लोग डर के बाहर निकल आए। इसके बाद अकाल तख्त के लक्ष्य को किसी और सैनिक लक्ष्य की तरह ही माना गया।

बाद में जब रिटायर्ड जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने स्वर्ण मंदिर का दौरा किया तो उन्होंने पाया कि भारतीय टैंकों ने अकाल तख्त पर कम से कम 80 गोले बरसाये थे। मैंने जनरल बराड़ से पूछा कि आपको कब अंदाजा हुआ कि जरनैल सिंह भिंडरावाले और शब्बीर सिंह मारे गए ?

“वो बाहर निकले सफेद झंडे के साथ और एक ओर बहुत ज़ोर से 30, 40 लोगो ने दौड़ लगाई, बाहर निकलने के लिए, और फिर फायरिंग भी बंद हो गई थी। तो फिर हमने अपने जवानों को अंदर भेजकर तलाशी कारवाई और फिर उनकी मृत्यु का पता लगा।“

लेकिन अगले दिन कहानियां शुरू हो गई के वो उस रात को निकल गए थे, और पाकिस्तान पहुँच गए। और पाकिस्तानी टीवी अनाउंस कर रहे थे कि भिंडरांवाले हमारे पास है, और 30 जून को हम उनको टीवी के ऊपर दिखाएंगे। तो मेरे को एच के एल भगत जो इन्फॉर्मेशन ब्रॉडकास्टिंग मिनिस्टर थे, उनका फोन आया कि आप तो बोल रहे हैं कि उनकी मौत हो गई है लेकिन पाकिस्तान तो कह रहा है कि वो वहाँ पहुँच गए हैं। मैंने बोला, “उनकी पूरी आइडेंटिफिकेशन हो गई है, उनकी बॉडी उनकी फैमिली को दे दी गई है। उनके जो फॉलोवर है उन्होंने आकर उनके पैर छुए। पाकिस्तान जो कहे सो कहे।”

इस पूरे ऑपरेशन में भारतीय सेना के 83 सैनिक मारे गए और 248 अन्य सैनिक घायल हुए। इसके अलावा 492 अन्य लोगों की मौत की पुष्टि हुई। और 1592 लोगों को हिरासत में लिया गया। इस घटना से भारत और पूरे विश्व में सिख समुदाय की भावनाएं आहत हुई। ये भारतीय सेना की सैनिक जीत जरूर थी लेकिन इसे बहुत बड़ी राजनीतिक हार माना गया। इसकी टाइमिंग, रणनीति और कार्यान्वयन पर कई सवाल उठाए गए और अंत में इंदिरा गांधी को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।