विद्वान दारा शिकोह: औरंगजेब से संघर्ष की कहानी और कब्र की खोज | Story of Struggle between Dara Shikoh and Aurangjeb

एक शहजादा उस दिन दिल्ली की सड़क पर निकला था। ये सड़क ठीक लाल किले तक जाती है, वहां पैदल सैनिक और घुड़सवार थे, शहजादे का नाम था दारा शिकोह।

0
844
विद्वान दारा शिकोह: औरंगजेब से संघर्ष की कहानी और कब्र की खोज | Story of Struggle between Dara Shikoh and Aurangjeb
विद्वान दारा शिकोह: औरंगजेब से संघर्ष की कहानी और कब्र की खोज | Story of Struggle between Dara Shikoh and Aurangjeb

विद्वान दारा शिकोह: औरंगजेब से संघर्ष की कहानी और कब्र की खोज

Story of Struggle between Dara Shikoh and Aurangjeb


वो तारीख थी, 8 सितंबर 1669 सड़कों पर उस दिन भारी भीड़ थी। एक शहजादा उस दिन दिल्ली की सड़क पर निकला था। ये सड़क ठीक लाल किले तक जाती है, वहां पैदल सैनिक और घुड़सवार थे, शहजादे का नाम था दारा शिकोह। लेकिन यह किसी जीत का जश्न नहीं, ये सरेआम बेइज्जती थी।

धारा एक मरियल से बूढ़े हाथी पर बैठा हुआ था, गंदगी से ढका। उन दिनों मुगल दरबार में रह रहे वेनिस के एक यात्री निकोलस मनमौजी ने इस बारे में कुछ यूं कहा है, “उसके गले में अब शानदार चमकदार मोतियों के वो हार नहीं थे, जो हिन्दुस्तान के शहजादे को अलग पहचान दिलाते थे। उसकी पगड़ी कश्मीरी शॉल की तरह लपेटी गई थी, ठीक वैसे ही जैसे गरीब लोग पहनते थे”।

दारा मुगल बादशाह शाहजहां का सबसे बड़ा बेटा दारा मुगल साम्राज्य का वारिस था, और अपने पिता का चहेता भी था। शाहजहां ने अपने बेटों को दूर दराज के रियासतों पर राज करने के लिए भेजा था, लेकिन उसने दारा को सालाना दो करोड़ रुपये की मुजराई देकर अपने पास रखना मुनासिब समझा। इस वजह से दरबार में कुछ लोग दारा को दारा बाबा भी बुलाते थे।

तो किस्मत ने ऐसी क्या करवट ली कि, शहजादा दिल्ली की सड़कों पर यूं बदहाल हो गया। दारा की कहानी उसके जिज्ञासु मन की कहानी है, जो उसकी ताकत भी थी और उसके पतन की वजह भी बनी। शाही दरबार से मिलने वाली पूरी रकम को दारा धार्मिक विचारों की अपनी धुन, धर्म और दर्शन से जुड़े ग्रंथों के अनुवाद और मुगल शैली की कलाकृतियां बनवाने में खर्च कर देता था। दारा की इसी धूनी उसे अपने समय का सबसे ज्यादा ठगा गया शख्स बना दिया, दारा की रुचि कई धर्मो और संस्कृतियों में थी। वो सूफियों, योगियों और अलग-अलग धर्मो के धर्मगुरुओं से घिरा रहता था। 1656 की शुरुआत में उसने उपनिषदों का अनुवाद शुरू करवाया। उपनिषदों को वेदान्त भी कहा जाता है और इन्हीं वैदिक हिन्दू धर्म का स्रोत समझा जाता है।

न्यूयॉर्क विश्विद्यालय में दर्शन के प्रोफेसर जनार्दन कनेरी कहते हैं ,”उस वक्त मुगल साम्राज्य के वारिस के अलावा ये काम कोई नहीं कर सकता था। किसी के पास इस तरह के संसाधन नहीं थे। उसने संस्कृत भी सीखने की कोशिश की”।

लेकिन एक और कहानी भी है, जो दारा की कहानी के साथ साथ चलती है। दारा के धार्मिक कट्टर पंथी भाई औरंगजेब की। दोनों की इस होड़ के नतीजे ने शायद भारत के इतिहास की धारा का रुख ही मोड़ दिया। बर्कले में इतिहास के प्रोफेसर मोनिस फारुकी कहते हैं “ दोनों के संबंधों में जहर घुला हुआ था, बहुत कम उम्र से ये संबंध जहरीले इसलिए थे क्योंकि, दोनों भाई एक दूसरे को प्रतियोगी और संभावित हत्यारे के तौर पर देखने लगे”। शाही तख्त पर कब्जे की होड़ में शामिल हो गया, सुंदरता का उपासक और सपने देखने वाला दारा और उसका कट्टरपंथी सैनिक भाई औरंगजेब। एक समकालीन विश्लेषक ने साधारण सा विरोधाभास देखा। जब दारा संस्कृत संस्कृति को बढ़ावा दे रहा था और औरंगजेब अपनी तलवार की धार तेज कर रहा था।

क्या होता अगर उस दिन दिल्ली की सड़कों पर जिसकी बेज्जती हुई उसकी की जगह औरंगजेब होता और दारा बादशाह बन गया होता। तो क्या वो मुगल साम्राज्य को उस तरह बिखरने से बचा सकता था जैसा औरंगजेब के राज में हुआ। कुछ लोग जरा आगे की सोचते, दारा भारत में बौद्धिक पुनर्जागरण को प्रेरित कर सकता था, तब शायद भारत पश्चिम के बराबर खड़ा होता और डेढ़ सौ सालों की गुलामी से बच जाता। शायद धर्म के आधार पर 1947 में बटवारा भी न हुआ होता।

दारा किसी जासूस की तरह धर्मो के बीच भाईचारे की तलाश करता रहा। कुरान के एक अंश में छिपी किताब का जिक्र पाकर दारा आश्वस्त हो गया कि, यहां इशारा उपनिषदों की ओर है। दारा ने अस्तित्व की एकता के सिद्धान्त को मानना शुरू किया, जिसके मुताबिक सारे धर्म ईश्वर की तलाश में किसी एक ईश्वरवादी सत्य में मिलते हैं। ठीक वैसे ही जैसे नदियां सागर में मिलती हैं। दारा का मानना था कि हिन्दू वैधानिक दर्शन के अध्यन से इस्लाम के ढके छिपे रहस्य उसके सामने आ रही हैं, जिससे उसे इतना विशेष ज्ञान मिलेगा कि, वह बिना किसी चुनौती के तख्त पर जा बैठेगा।

मोनिस फारूकी कहते हैं “मुझे लगता है कि, दारा के बड़े राजनीतिक हिसाब किताब का एक अहम हिस्सा ये भी था कि, वह खुद को एक आदर्श व्यक्ति की तरह पेश करे”। दारा ने मुगल ताज की अपनी राह को कुछ ऐसे देखा कि, वो ऐसा व्यक्ति है जो सारे धार्मिक रहस्य जाहिर कर देगा।

मुगल साम्राज्य में शाही उत्तराधिकार की लड़ाइयां अक्सर खून खराबे से भरी होती थीं। शहंशाह का हर बेटा ताज पर दावा ठोक सकता था, लेकिन दारा ने उन दरबारियों को ही दूर कर दिया था, जिनके समर्थन की जरूरत उसे पिता की मौत होने पर पड़ती। दारा के समर्थक निकोल्सन मनमौजी लिखते हैं “दारा अति आत्मविश्वास से भरा हुआ था। वह खुद को हर काम में सक्षम मानता था और उसे लगता था कि, उसे सलाहकारों की जरूरत नहीं है जो सलाह देते वह उनसे नफरत करता। इसलिए उसके प्रिय मित्र उसे सबसे जरूरी चीजें भी नहीं बताते। उसे लगता कि सब उसे प्यार करते हैं और किस्मत आखिर उसी का साथ देगी”।

जनार्दन गेनरी कहते हैं, “शायद वो सपने देखता था। दूसरे दार्शनिकों की तरह वो विचारों के बारे में सोचता था, नाकि प्रशासन के बारे में। शायद धार्मिक एकता के बारे में कम और प्रशासन के बारे में दारा ज्यादा सोचता तो अच्छा रहता”।

इस बीच औरंगजेब खुद को मजबूत कर रहा था। वह अपने प्रभाव का दायरा बढ़ा रहा था, और शाही सिंहासन पर कब्जे की तैयारी कर रहा था। मोनिस फारुखी शहजादे औरंगजेब के बारे में बताते हैं, “औरंगजेब ने मध्यभारत में काम किया, उसने दक्कन में दो लंबे कार्यकाल बिताए। गुजरात में रहा, मुलतान में रहा। उसने उत्तरी अफगानिस्तान पर हमले में हिस्सा लिया और कंधार पर चढ़ाई में भी, वो सब जगह था। इन सालों में उसने अपने व्यक्तित्व को एक योद्धा, एक प्रशासक के तौर पर ढाला। उसे ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखा गया जो लोगों की परवाह करता है, धर्म में आस्था रखता है, राज्यों पर हमलों में मिली रकम को अपने साथियों में बांटता है और फिर हैरानी की बात नहीं कि, जब उत्तराधिकार की लड़ाई हुई तो इनमें से कई लोगों ने उसका साथ दिया।

जब 1657 में शाहजहां बीमार पड़ा तो, शाही तख्त एक तरह से खाली हो गया। औरंगजेब ने इस मौके का फायदा उठाते हुए चाल चली, न सिर्फ अपने भाई को सैन्य मामलों में नादान मानता था, बल्कि उसका ये भी मानना था कि, दूसरे धर्मो में उसकी दिलचस्पी से वो धर्म त्यागी हो गया है और राज करने के लायक नहीं। अब दोनों भाइयों की टक्कर मैदान ए जंग में होनी थी।

जून 1659 में दोनों सेनाएं आगरा के नजदीक समूहगढ़ में आमने सामने थीं। उम्मीद के मुताबिक लड़ाई बेहद संक्षिप्त रही। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक औरंगजेब एक राजपूत सैनिक के वार से मरते मरते बचा, लेकिन जल्द ही संभल गया। वहीं दारा के हौदे को एक रॉकेट लगा और वो तेजी से हाथी से उतर गया। उसके सैनिकों ने जल्द ही उसके डर को समझ लिया और लड़ाई खत्म हो चुकी थी। सिर्फ तीन घंटे की लड़ाई में दारा के दस हजार सैनिक मारे गए। जो बचे उन्होंने दारा का साथ छोड़ दिया। दारा भगोड़ा बन चुका था। उसके रेशमी कपड़ों की जगह बेकार कुर्ते और सस्ते जूतों ने ले ली थी। आखिर में उसे एक अफगान सरदार मलिक जीवन ने धोखा दे दिया। मलिक जीवन ने उसे बचाने का वादा किया और फिर औरंगजेब को सौंप दिया। इसके बाद फटेहाल दारा का एक छोटे साधारण हाथी पर जुलूस निकला।

बेहद उदास नजारा था, जिसने भी उसे देखा उसे तरस आ गया। क्योंकि इतने कम समय में इतना ताकतवर, इतना अमीर, इतना मशहूर शहजादा इतनी बुरी हालत में पहुंच चुका था। औरंगजेब के दरबार में हुए दिखावटी मुकदमे में दरबारियों ने करीब करीब एकमत होकर दारा को मृत्युदंड की सिफारिश कर दी, और फिर 9 सितंबर 1659 को उसे मौत के घाट उतार दिया गया। उसका सिर काट कर औरंगजेब को पेश किया गया। उसके शरीर को हुमायूं के मकबरे के इसी मैदान में कहीं दफन कर दिया गया।

लेकिन शायद हम इस मकबरे को और इसके गुलाबों के बाग को पीछे छोड़कर, दारा की लाइब्रेरी के खंडहर की ओर जाकर दारा के ज्यादा करीब जा सकते हैं। ये जगह एक सरकारी यूनिवर्सिटी के परिसर में दुकानों की एक कतार के पीछे किसी राज की तरह है। बीती सदियों में यहां एक पंजाबी रईस, एक ब्रितानी साहब का घर रहा और एक सरकारी स्कूल भी। ब्रितानी साहब की इमारत जिसमें रोमन शैली के खंबे लगे और कंगूरे जो जयपुर बालू पत्थर के हैं, अब चूने की परतों से ढकी हुई है। यही बचा उस लाइब्रेरी का जो दारा के पिता ने अपने पुस्तक प्रेमी बेटे के लिए बनवाई थी।

ये दुर्लभ पांडुलिपियां और इस लाइब्रेरी में जो काम मौजूद है वो दारा की धुन का अनूठा विषय है, लेकिन ये रास्ता मुगल सिंहासन तक नहीं जाता था। मुगलों के मानदंडों के मुताबिक दारा एक नाकाम शख्स था, उसको बदनसीब भी कहा गया। उन शहजादों में से एक जो उत्तराधिकार की लड़ाई में आगे नहीं बढ़ सके ।

तो भारत का वैकल्पिक इतिहास क्या होता, अगर दारा सिंघासन पर बैठता और एक उदारवादी दार्शनिक बादशाह बनता, एक लुभावना सपना लेकर। दारा की दिलचस्पी संस्कृतियों के साथ रहने और पनपने में नहीं थी।उसे तो भरोसा था कि, वो इस्लाम का सत्य ढूंढ रहा है और अगर वो बादशाह बनता तो शायद राजनीतिक दक्षता का अनुभव न होने के चलते उसके शासन में मुगल साम्राज्य का पतन कहीं जल्द हो गया होता। एक तरफ दारा की विरासत ज्यादा असली है। दारा ने उपनिषदों और दूसरे संस्कृत ग्रंथों के जो अनुवाद कराए उनसे यूरोप के विद्वानों की नजर उन पर पड़ी। दारा की मौत के बाद उसका काम न सिर्फ इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच और भारत और पश्चिम के भी बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी बन गया। एक और सवाल, क्या होता अगर उसने ये अनुवाद नहीं कराए होते तो शायद ज्यादा कामयाब शहजादा होता और बादशाह भी बन जाता, लेकिन हमारी सोच आज ज्यादा सीमित होती।

दारा शिकोह की कब्र ढूंढ रही है केंद्र सरकार

केंद्र सरकार की योजना है कि दारा शिकोह के भारतीय संस्कृति और साहित्य के प्रति समर्पण कृतित्व और व्यक्तित्व को देश के सामने लाने का उपक्रम शुरू किया जाए। दिल्ली के सबसे अहम इलाके राष्ट्रपति भवन के ठीक बगल में और साउथ ब्लॉक के निकट डलहौजी रोड का नाम भी पिछले वर्षों दारा शिकोह मार्ग किया जा चुका है।

संस्कृति मंत्रालय की पहल पर शुरू क‍िए गए अभियान में मुगल बादशाह दारा शिकोह की कब्र की पहचान में इतिहासकारों और पुरातत्व विशेषज्ञों की टीम जुटी है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व महानिदेशक डॉ सैयद जमाल हसन भी इस टीम में शामिल हैं।

संजीव कुमार सिंह ने हुमायूँ के मकबरें में दारा शिकोह की कब्र ढूँढने का दावा किया है

आगरा के पंचकुइयां अशोक नगर के रहने वाले संजीव कुमार सिंह दक्षिणी दिल्ली नगर निगम के हैरिटेज सेल में सहायक अभियंता हैं। संजीव कुमार सिंह ने दारा शिकोह की कब्र ढूंढ निकालने का दावा किया है। सूत्रों का कहना है कि दिल्ली नगर निगम के इंजीनियर संजीव कुमार सिंह ने हुमायूं मकबरे में जिस कब्र को दाराशिकोह की बताई है, उस दावे से कमेटी के अधिकांश सदस्य सहमत हैं। संजीव कुमार सिंह के दावे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अनुमानों से भी मैच करते हैं।

दक्षिणी नगर निगम के इंजीनियर संजीव कुमार सिंह ने औरंगजेब के जमाने में आधिकारिक इतिहास लिखने वाले मोहम्मद काजिम की फारसी में लिखी पुस्तक आलमगीरनामा का अनुवाद कराया तो पता चला कि उसमें दाराशिकोह के कत्ल और लाश दफ्न करने के बारे में पूरी जानकारी है। किताब में लिखा गया है कि दारा की लाश को हुमायूं के मकबरे में गुंबद के नीचे बने तहखाने में दफ्न किया गया, जहां पहले से अकबर के बेटे डानियल और मुराद दफ्न हैं। हर जमाने की कब्रों की शैली के अध्ययन के बाद दाराशिकोह की कब्र तक पहुंचे।