18 युद्ध जीतने और शरीर पर 80 घाव झेलने वाले राणा सांगा

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18 युद्ध जीतने और शरीर पर 80 घाव झेलने वाले राणा सांगा


साल 1500 ईस्वी दिल्ली की सत्ता पर इब्राहिम लोदी सुल्तान था  और इधर गुजरात में बादशाह बहादुर शाह की अपनी सल्तनत कायम हो चुकी थी। इन्हीं राज्यों से गुजरते हुए बीच में पड़ता था मेवाड़। मेवाड़ हमेशा से दिल्ली की आखों में चुभता था क्योंकि दिल्ली के सुल्तान मेवाड़ के महान योद्धा विषम घाटी पंचानन राणा, हमीर सिंह के शौर्य की याद में कई बार तप चुके थे।

खैर इस समय मेवाड़ में राणा रायमल का राज हुआ करता था जिनके तीन पुत्र थे। कुंवर पृथ्वीराज कुंवर, जयमल और सबसे छोटा पुत्र था राणा संग्राम सिंह। ये तीनों भाई  रोज अपने गुरु के आश्रम जाते हैं। गुरु बालक संग्राम सिंह के हाथ को देखकर बताता कि, तेरी तलवार सल्तनत के काम आएगी, जहां तेरा ध्वज लहराएगा व आसपास कोई भी शत्रु नहीं आएगा। नगर- नगर में तेरी धाक कायम होगी, बहुत जल्द तुम मेवाड़ का भावी सम्राट बनेगा। गुरु की इस भविष्यवाणी को सुन बड़े भाई कुंवर पृथ्वीराज ने कहा यह सब मात्र बातें हैं। मेवाड़ का राणा तो बड़ा पुत्र ही बनेगा। इस पर कुंवर संग्राम सिंह ने कहा पैसा जिसकी ताकत उसकी सत्ता। संग्राम सिंह के ऐसे वचनों को सुनकर दोनों भाइयों का आपस में झगड़ा छिड़ गया। इसी लड़ाई में पृथ्वीराज ने बालक संग्राम सिंह की एक आंख फोड़ दी। इसी बात से नाराज बालक संग्राम सिंह रात के अंधेरे में मेवाड़ किले से अजमेर निकल गए जहां करमचंद पवार ने उनको आश्रय दिया।

राणा सांगा के तन पर अस्सी घाव थे।
राणा सांगा के तन पर अस्सी घाव थे।

अजमेर में रहकर राणा ने कई युद्ध कलाओं में महारत हासिल की। तपस्या के ताप में तपकर बालक संग्राम सिंह सोना बन रहा था। बालक संग्राम सिंह अब युवा हो चला था। खून में गर्मी, जिगर में फौलाद और ऊंचे तेवर होना लाजमी था क्योंकि वीर राणा कुंभा के ही रक्तबीज थे। यही समय था जब संग्राम सिंह ने मेवाड़ धरा की सियासत को पलट कर रख दिया। इस समय तक संग्राम सिंह के दोनों भाइयों का स्वर्गवास हो चुका था। इसी के साथ सरदारों ने राणा संग्राम सिंह को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करते हुए उनका मेवाड़ की गद्दी पर राजतिलक कर दिया।

ये वही संग्राम सिंह थे, जिसे दुनिया राणा सांगा के नाम से जानती है। राणा ने सतलुज, बयाना, सिंध मालवा, भरतपुर, ग्वालियर, बयाना, उत्तर गुजरात और संपूर्ण राजपूताना में एक छत्र शासन स्थापित किया। राणा के एक आँख, एक हाथ नहीं था और शरीर पर 80 घाव थे। पर फिर भी खुले शेर की तरह भयानक युद्धों का नेतृत्व खुद करते थे राणा। संपूर्ण भारत पर एकछत्र शासन स्थापित करके विक्रमादित्य की उपाधि धारण करने का अरमान रखते थे। इन्होंने पाती परवन की प्रथा को पुनः जीवित करते हुए सभी क्षत्रिय ताकतों को एक कर दिया जिससे पश्चिम में मेवाड़ एक हिन्दू राज्य बन कर दिल्ली की सत्ताओं को ललकारने लगा। दिल्ली के सुल्तान को बंदी बनाया और घोड़े के पीछे बांधकर मेवाड़ ले गई और बयाना के मैदानों में विशाल मुगल फौज को परास्त कर दिया। जब भारत चारों तरफ से शत्रुओं से घिर चुका था तभी एक मात्र योद्धा बनकर उठे।

साल 1509 ईस्वी में राणा सांगा ने मेवाड़ की गद्दी संभाली। मेवाड़ ने अपना गढ़ मजबूत करने के बाद राणा ने राजपूताना की सभी बड़ी -बड़ी रियासतों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करने शुरू किए जिसमें मारवाड़, बीकानेर, बून्दी, आमेर, बागड़ में वैवाहिक संबंधों की स्थापना के साथ राणा ने कई ताकतों को एक साथ ला दिया और साथ ही करम चंद पंवार को अजमेर का मुख्य सरदार घोषित करके अपनी सत्ता को राजपूताना के मुख्य द्वार तक मजबूत कर दिया। चारों दिशाओं में अपनी सत्ता मजबूत करने के बाद राणा ने ईडलप्रदेश पर हमला कर दिया जहां का शासक राजा बाणमल गुजरात के सुल्तान महमूद शाह का पूरा समर्थन करता था। राणा के इस भयानक हमले से शेख़ गुजरात भाग गया जिसके बाद राणा ने अपने सरदार को ईडलप्रदेश का मुख्य प्रहरी बना दिया।

इधर मेवाड़ से दूर मालवा में सुल्तान नासिर शाह खिलजी का शासन हुआ करता था। मेदिनी राय खिलजी की नीतियों के पूर्ण खिलाफ था और इन्ही बातों से तंग आकर मेदिनी राय राणा सांगा के दरबार में जा पहुंचा, जहां राणा ने मेदिनी राय को गागरोन और चंदेरी का प्रहरी बना दिया।

राणा ने बड़ी -बड़ी रियासतों से रिश्ते तय करके सभी बड़ी ताकतों को एक छत्र में ले आए और चारों तरफ अपने विश्वसनीय सरदारों को बिठा दिया। अब राणा ने महा भयानक युद्ध का शंखनाद किया। राणा की निगाहें तो शुरूआत से ही दिल्ली की सत्ता पर टिकी थी और इसी के साथ राणा ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों पर अपना ध्वज लहरा दिया और दिल्ली को आगरा पर हमले की ललकार भेजी। अब दिल्ली दूर नहीं थी। राणा की इस बढ़ती ताकत ने सबको हैरान कर दिया। इसी बढ़ती ताकत का जवाब देते हुए साल 1517 में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी ने तुरंत एक विशाल सेना के साथ मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी। इस युद्ध में इब्राहिम की सेना को चारों तरफ से घेर लिया गया। इस युद्ध में राणा का एक हाथ कट गया और एक पैर पर तीर लगा जिससे उन्होंने एक पैर खो दिया। इब्राहिम को कैद करके मेवाड़ दरबार ले जाया गया जहां से हर्जाना लेकर उसे छोड़ दिया गया। उसके दो साल बाद फिर साल 1519 में इब्राहिम लोदी ने मियां मगन के नेतृत्व में राणा सांगा पर एक बार फिर हमला कर दिया। इस बार फिर राणा सांगा की विजय हुई।

दिल्ली के सुल्तान को दो बार पराजित करने के बाद संपूर्ण राजपूताना में राणा सांगा के नाम की धाक कायम हो गई और सभी ने सांगा को अपना सरदार चुनते हुए उन्हें हिन्दू पंथ की उपाधि से नवाजा। साल 1518 में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने गागरोन पर धावा बोलना शुरू कर दिया जिसके बाद राणा सांगा और महमूद की सेना के बीच घनघोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में सांगा ने महमूद के सभी सरदारों को मार डाला और महमूद को बंदी बनाकर चित्तौड़ में पांच महीने तक कैद कर दिया गया। इतिहास अब करवट बदल रहा था। काबुल का बादशाह बाबर और दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी के बीच 20 अप्रैल 1526 में पानीपत के मैदान में घनघोर युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध के समय राणा सांगा शांति से मोके की तलाश मे थे। उनको लगता था कि, बाबर इब्राहीम को मारकर कुछ दिन दिल्ली में रहेगा फिर वापस लौट जाएगा पर ऐसा नहीं था। बाबर ने इब्राहिम को मारकर दिल्ली पर अपनी सत्ता कायम कर दी। अब भारत की स्थितियां काफी बदल चुकी थी। दिल्ली की सत्ता पर सल्तनत ने मुगलिया कायम हो गई थी और इधर मेवाड़ एक बहुत बड़ा हिन्दू साम्राज्य बन चुका था जिसका विस्तार दिल्ली को छूता था।

बाबर स्पष्ट था कि, जब तक राणा सांगा जैसा योद्धा हैं, तब तक वह भारत पर मजबूत शासन ही स्थापित नहीं कर पाएगा और इसी के तहत बाबर अपनी विशाल सेना के साथ फतेहपुर सीकरी में अपना डेरा डालकर बयाना दुर्ग पर अधिकार जमा लेता है। मेवाड़ी सरदार, मेवाड़ दरबार में वह राणा को सूचना दी कि, काबुल की ओर से आई विशाल सेना ने हमारे दुर्ग पर कब्जा कर लिया और आपको युद्ध की चुनौती दे दी है। राणा को चुनौती का समाचार मिलते ही राणा ने महायुद्ध का एलान कर दिया। संपूर्ण राजपूताना में संदेश भिजवाया गया जिसके तहत सभी क्षत्रिय ताकतें राणा के छतरी के नीचे एक साथ मिलकर महा सेना का रूप धारण कर चुकी थी और निकल पड़े बयाना की तरफ भयानक शंखनाद के साथ युद्ध का एलान किया गया। मारवाड़ नरेश मालदेव राठौड़ ने युद्ध की रणनीति तय की। बूँदी बागड़ से उदयसिंह, अजमेर आमेर से पृथ्वीराज, बीकानेर के कल्याणमल ग्वालियर और बड़ी बड़ी रियासतों के महाराजाओं तथा अफगानी सरदारों ने राणा सांगा के नेतृत्व में 16 फरवरी 1526 को बाबर की सेना को चारों तरफ से घेर लिया और बयाना के किले पर फिर से केसरिया ध्वज लहरा दिया गया।

ये बाबर की सेना की पहली हार थी। पर बाबर भी कोई छोटा मोटा बादशाह नहीं था। इतिहास बताता है कि उसकी नेतृत्व शक्ति गजब की थी, जब मुगल सेना ने इतनी विशाल महा सेना का करारा प्रहार देखा तो उन्होंने पुनः युद्ध में जाने से मना कर दिया। जिसके बाद बाबर ने सेना को कई लालच दिए, पर सेना काबुल जाने की तैयारी कर चुकी थी। अंत में बाबर ने धर्म युद्ध या जिहाद का नारा लगाया जिसके बाद सेना वापस इकट्ठा होने लगी। इतिहास बताता है कि, राणा सांगा ने बयाना पर केसरिया ध्वज लहरा कर संधि कर ली जबकि उनको तुरंत दिल्ली पर धावा बोलना चाहिए था। ऐसा न करने के कारण बाबर ने फिर से सेना तैयार की और एक महीने बाद 17 मार्च 1527 खानवा भरतपुर के मैदानों में फिर युद्ध की तैयारियां शुरू कर दी। जब राणा के सरदार सरहदी सुरक्षा का पहरा लगा रहे थे तब उन्होंने राणा को समाचार भिजवाया कि, हुकुम तैयार रहे फिर एक बार युद्ध की तैयारी चल रही है। इस बार फिर पाती परवन के साथ एक माह विनाशी सेना के साथ राणा सांगा और मुगल सेना में टकराव हुआ। इस बार बाबर ने कई सारे तोप अपनी सेना के पीछे तैनात कर रखी थी। तोप जैसे हथियार के बारे में भारतीयों ने पहले कभी नहीं सुना था। जब राणा की सेना आगे बढ़ी तब अली और मुस्तफा के नेतृत्व में तोप का मुंह खोल दिया गया। हजारों हिंदवी सिपाही ढेर हो गए।

राणा गुस्से में लबरेज होकर युद्ध क्षेत्र के बीच में जा पहुंचे, जहां बाबर ने सेना को तुलगावा पद्धति अपनाने का आदेश दिया जिसके तहत राणा की सेना के पीछे से हमला करना शुरू कर दिया गया। इस हमले में राणा को एक तीर लगी जिससे वे हाथी से नीचे आ गई। तुरंत झाला अजय ने राणा को राजचिन धारण किया और हाथी पर सवार होकर युद्ध घोष किया और बाकी सरदार राणा को युद्ध क्षेत्र से बाहर बसवा ले गए। जहां राणा को वापस होश आने के बाद राणा ने कहा जीत की बधाई हो पर सरदारों ने कहा कि हम अपनी धरा खो चुके हैं हुकुम मेवाड़ प्रस्थान करने का आदेश सुनाए पर राणा सांगा ने सरदारों को फटकार लगाई और कहा मेरे आदेश के बिना कोई मुझे रण क्षेत्र से बाहर लाया, पुनः युद्ध की तैयारी करो हम विजयश्री के साथ मेवाड़ जाएंगे। तभी राणा को संदेश मिला कि बाबर की सेना चंदेरी पर हमला करेगी तो राणा ने सरदारों को का तैयार हो जाओ और निकल पड़े चंदेरी की तरफ। जहां कालपी के मैदानों में राणा सांगा ने अपना डेरा लगाया, वही कालपी के मैदानों में राणा सांगा का स्वर्गवास हो गया।

कुछ लोगों का मानना है कि राणा सांगा को सरदारों ने जहर दे दिया था पर कुछ भी हो राणा सांगा का संपूर्ण जीवन अखंड भारत के निर्माण में बीता। उन्होंने बाबर के युद्ध से पहले लगभग 18 युद्ध जीतकर अपनी सत्ता दिल्ली तक ले गई थी। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि, राणा सांगा एक बुद्धिमान युद्ध प्रेमी साम्राज्य विस्तार की सोच वाले एक महान योद्धा थे। अगर वो अपने सपनों में कामयाब हो जाते तो आज भारत की दशा कुछ और होती। बाबर ने खुद बाबरनामा में लिखवाया कि, राणा सांगा अपनी वीरता और तलवार के बल पर अत्यधिक शक्तिशाली हो गया था। वास्तव में उसका राज्य चित्तौड़ में था। माण्डू के सुल्तानों के राज्य के पतन के कारण उसने बहुत से स्थानों पर अधिकार जमा लिया उसका मूल्क 10 करोड़ की आमदनी का था। उसकी सेना में एक लाख सवार थे। उसके साथ 7 बड़े और 104 छोटे सरदार हमेशा तैनात रहते थे। उसके तीन उत्तराधिकारियों में से यदि एक भी वैसा ही वीर होता तो मुगलों का राज्य हिन्दुस्तान में जम नहीं पाता।

मांडलगढ़ कस्बे में हुआ था राणा सांगा का दाह संस्कार
मांडलगढ़ कस्बे में हुआ था राणा सांगा का दाह संस्कार

राणा सांगा के बारे मे कुछ प्रमुख तथ्ये :

  1. राणा सांगा और बाबर का युद्ध कब हुआ ?   
    भरतपुर-धौलपुर रोड पर रूपवास के निकट गांव खानवा, जहां 17 मार्च 1527 में बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध लड़ा गया।
  2. राणा सांगा की छतरी कहां स्थित है ?
    राणा सांगा की छतरी माण्डल (भीलवाड़ा) अशोक परमार द्वारा 8 खम्भों पर निर्मित है।
  3. पानीपत के प्रथम युद्ध में राणा सांगा की पराजय के कारण क्या थे ?
    खानवा के युद्ध में राणा सांगा के पराजय का मुख्य कारण राणा सांगा की प्रथम विजय के बाद तुरंत ही युद्ध न करके बाबर को तैयारी करने का समय देना था ।
  4. राणा सांगा की मृत्यु कैसे हुई ?
    30 जनवरी 1528 को, सांगा की मृत्यु चित्तौड़ में हुई, जो कि अपने ही सरदारों द्वारा जहर देकर मारा गया था.
  5. राणा सांगा का राज्याभिषेक कब हुआ ?
    उनके बड़े भाइयों की मृत्यु के उपरांत राणा सांगा 24 मई 1509 को मेवाड़ की गद्दी पर आसीन हुए।