अंग्रेज़ो के छक्के छुड़ाने वाले टीपू सुल्तान की कहानी | Tipu Sultan: Who gave a tough fight to Britishers

जब हमने उनकी नाड़ी और दिल को छुआ तो हमारी सभी आशंकाएं दूर हो गई। उनके शरीर पर चार घाव थे। तीन शरीर पर और एक माथे पर, एक गोली उनके दाहिने कान में घुसकर उनके बाएं गाल में धंस गई थी।

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अंग्रेज़ो के छक्के छुड़ाने वाले टीपू सुल्तान की कहानी | Tipu Sultan: Who gave a tough fight to Britishers

अंग्रेज़ो के छक्के छुड़ाने वाले टीपू सुल्तान की कहानी | Tipu Sultan: Who gave a tough fight to Britishers


मशहूर इतिहासकार कर्नल माइक विल्क्स लिखते हैं, कि टीपू सुल्तान अपने पिता हैदर अली से कद में छोटे थे। उनकी त्वचा का रंग काला था, आँखें बड़ी थीं, साधारण और बिना वजन की पोशाक पहनते थे और अपने हाली मवालियों से भी ऐसा करने की उम्मीद रखते थे। उनको अक्सर घोड़े पर सवार देखा जाता था। वो घुड़सवारी को एक बहुत बड़ी कला मानते थे और इसमें उन्हें महारत हासिल थी। उन्हें पालकी पर चलना सख्त नापसंद था। टीपू सुल्तान की शख्सियत की एक झलक ब्रिटिश लाइब्रेरी में रखी एक किताब “एन एकाउंट ऑफ टीपू सुल्तान “ में मिलती है, जिसे उनके मुंशी मोहम्मद कासिम ने उनकी मौत के बाद एक अंग्रेज इतिहासकार को दिया था ।

टीपू मझोले कद के थे, उनका माथा चौड़ा था। वह स्लेटी आँखों, ऊँची नाक और पतली कमर के मालिक थे। उनकी मूछें छोटी थीं, और दाढ़ी पूरी तरह से कटी हुई थी। विक्टोरियन अलबर्ट म्यूजियम लंदन में उनका एक चित्र रखा हुआ है जिसमें वो हरी पगड़ी पहने हुए हैं, जिसमें एक रूबी और मोतियों का सरपेंच लगा हुआ है। उन्होंने हरे रंग का जामा पहना हुआ है, जिसमे शेर की धारियों वाला कमरबंद लगा हुआ है। उनकी बांह में एक बेल्ट है जिसमे लाल म्यान के अंदर एक तलवार लटक रही है।

अंग्रेज़ो के छक्के छुड़ाने वाले टीपू सुल्तान की कहानी | Tipu Sultan: Who gave a tough fight to Britishers
अंग्रेज़ो के छक्के छुड़ाने वाले टीपू सुल्तान की कहानी

14 फरवरी 1799 को जनरल जॉर्ज हैरिसन के नेतृत्व में 21 हजार सैनिकों ने वेल्लोर से मैसूर की तरफ कूच किया। 20 मार्च को अंबर के पास कर्नल वेल्लेस्लि के नेतृत्व में 16 हजार और सैनिकों का दल इस सेना में आ मिला था। इसमें कन्नूर के पास स्टुअर्ट की कमान में 6420 सैनिकों का जत्था भी शामिल हो गया था। इन सबने मिलकर टीपू सुल्तान के शेरिंगपटम पर चढ़ाई कर दी थी।

मशहूर इतिहासकार जेम्स मिल अपनी किताब “हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया” में लिखते हैं, ये वही टीपू सुल्तान थे जिनके आधे साम्राज्य पर 6 साल पहले अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था। उनके पास जो जमीन बची थी, उससे उन्हें सालाना एक करोड़ रुपये से थोड़ा अधिक राजस्व मिलता था जबकि उस समय भारत में अंग्रेजों का कुल राजस्व 90 लाख पाउंड स्टर्लिंग यानी नौ करोड़ रुपए था।

धीरे-धीरे उन्होंने शेरिंगपटम के किले पर घेरा डाला और 3 मई 1799 को तोपों से गोलाबारी कर उसकी प्राचीर में एक छेद कर दिया। एक ओर इतिहासकार एसआर लसींगटोन अपनी किताब “लाइफ ऑफ हैरिस” में लिखते हैं, हालांकि छेद इतना बड़ा नहीं था, लेकिन तब भी जॉर्ज हैरिस ने उसके अंदर अपने सैनिक भेजने का फैसला किया। असल में उनके पास कोई विकल्प भी नहीं था। उनकी रसद खत्म हो चुकी थी, और उनकी सेना करीब करीब भुखमरी के कगार पर थी। बाद में हैरिस ने कैप्टन मैलकम से खुद स्वीकार किया कि, मेरे तंबू पर तैनात अंग्रेज संत्री खाने की कमी और थकान से इतना कमजोर हो चुका था, अगर आप उसे जरासा धक्का दे दें तो वह नीचे गिर जाएगा।

अंग्रेज़ो के छक्के छुड़ाने वाले टीपू सुल्तान की लाश यहा मिली थी।
अंग्रेज़ो के छक्के छुड़ाने वाले टीपू सुल्तान की लाश यहा मिली थी।

3 मई की रात करीब 5000 सैनिक इसमें करीब तीन हजार अंग्रेज थे, खाइयों में छिप गए ताकि टीपू के सैनिकों को उनकी गतिविधि के बारे में पता न चल सके। जैसे ही हमले का समय करीब आया टीपू सुल्तान से दगा करने वाले मीर सादिक ने टीपू के सैनिकों को तनख्वाह देने के बहाने पीछे बुला लिया। एक और इतिहासकार मीर हुसैन अली खां किरमानी अपनी किताब “हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान” में लिखते हैं की, टीपू के कमांडर नदीम ने वेतन का मुददा उठा दिया था इसलिए प्राचीर के छेद के पास तैनात टीपू के सैनिक उस समय पीछे चले गए थे जब अंग्रेजों ने हमला बोला था।

इस बीच टीपू के एक बहुत वफादार कमांडर सईद गफ्फार अंग्रेजों के तोप के गोले से मार दिए गए। किरमानी लिखते हैं कि जैसे ही गफ्फार की मौत हुई किले से गद्दार सैनिकों ने अंग्रेजों की तरफ सफेद रूमाल हिलाने शुरू कर दिए। ये पहले से तय था कि, जब ऐसा किया जाएगा तो अंग्रेज सैनिक किले पर हमला बोल देंगे। जैसे ही ये सिग्नल मिला अंग्रेज सैनिकों ने नदी के किनारे की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया जो वहां से सिर्फ 100 गज दूर था। नदी भी करीब 280 गज चोड़ी थी। इसमें कहीं टखने तक पानी, तो कहीं कमर तक पानी था।

मेजर एलेक्जेंडर एलन अपनी किताब “एन एकाउंट ऑफ द कैम्पेन इन मैसूर” में लिखते हैं, हालांकि किले से आगे बढ़ते हुए सैनिकों को आसानी से तोपों का निशाना बनाया जा सकता था, लेकिन तब ही खाइयों से निकलकर कुछ सैनिकों ने मात्र सात मिनटों के अंदर किले की प्राचीर के तोप से हुए छेद पर ब्रिटिश झंडा फहरा दिया था। खेत पर कब्जा करने के बाद ब्रिटिश सैनिक दो हिस्सों में बंट गए, बायीं तरफ बढ़ने वाले सेनिकों को टीपू के सैनिकों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। टीपू के सैनिकों के साथ आमने सामने की लड़ाई में कर्नल डनलप की कलाई पर तलवार के वार से बड़ा घाव हो गया। इसके बाद टीपू के सैनिकों ने कॉलम के सैनिकों का आगे भड्ना रोक दिया। ऐसा इस वजह से हुआ क्योंकि खुद टीपू सुल्तान अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए लड़ाई में कूद पड़े। डनलप की जगह लेफ्टिनेंट फरव्यवहार ने ली लेकिन वो भी तुरंत मार दिए गए।

सैनिकों का मनोबल गिर गया तब वो घोड़े पर सवार होकर उनकी हिम्मत बढ़ाने की कोशिश करने लगे
सैनिकों का मनोबल गिर गया तब वो घोड़े पर सवार होकर उनकी हिम्मत बढ़ाने की कोशिश करने लगे

4 मई की सुबह टीपू अपने घोड़े पर सवार होकर किले की प्राचीर में हुए छेद का निरीक्षण किया और उसकी मरम्मत के निर्देश दिए। उसके बाद वो राजमहल में स्नान करने चले गए। किरमानी लिखते हैं कि, सुबह ही उनके ज्योतिषियों ने उन्हें आगाह कर दिया था कि वो दिन उनके लिए शुभ नहीं है इसलिए उन्हें शाम तक अपने सैनिकों के पास ही रहना चाहिए।
स्नान के बाद टीपू ने अपने महल के बाहर इकट्ठा हो गए गरीबों को कुछ पैसे बांटे। शेरिंगपटम के मुख्य पुजारी को उन्होंने एक हाथी, तिल का एक बोरा और दो सौ रुपये दान दिए। दूसरे ब्राह्मणों को टीपू ने काला बैल, एक काली बकरी, काले कपड़ों से बनी एक पोशाक, 90 रुपए और तेल से भरा लोहे का एक बर्तन दान में दिया। इससे पहले उन्होंने लोहे के बर्तन में रखे तेल में अपनी परछाई देखी। उनके ज्योतिषियों ने उन्हें बताया था कि ऐसा करने से उन पर आने वाली विपत्ति टल जाएगी। फिर उन्होंने राजमहल लौटकर रात का खाना खाया।

उन्होंने अपना खाना शुरू ही किया था कि, उन्हें अपने करीबी कमांडर शहीद गफ्फार की मौत की खबर मिली। गफ्फार किले के पश्चिमी छोर की सुरक्षा देख रहे थे। लेफ्टिनेंट कर्नल एलेक्जेंडर बीटसन अपनी किताब “अबयू ऑफ द ओरिजिन एंड कंडक्ट ऑफ द वार विथ टीपू सुल्तान” में लिखते हैं की, टीपू समाचार सुनते ही भोजन के बीच से ही उठ गए। उन्होंने हाथ धोए और घोड़े पर सवार होकर उस जगह चल पड़े जहां किले की प्राचीर पर छेद हुआ था लेकिन उनके पहुँचने से पहले ही अंग्रेजों ने वहां अपना झंडा फहरा दिया था और अब वो किले के दूसरे इलाकों में बढ़ रहे थे। बिटसन आगे लिखते हैं, इस लड़ाई मे टीपू ने अधिकतर सामान्य सैनिक की तरह पैदल ही लड़ाई की, लेकिन जब उनके सैनिकों का मनोबल गिर गया तब वो घोड़े पर सवार होकर उनकी हिम्मत बढ़ाने की कोशिश करने लगे।

मांविल्क्स लिखते हैं, अगर टीपू चाहते तो वो लड़ाई के मैदान से भाग सकते थे। उस समय किले के कमांडर मीर नदीम किले के गेट की छत पर खड़े हुए थे लेकिन उन्होंने अपने सुल्तान की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। टीपू तब तक घायल हो चुके थे जब टीपू किले के अंदरूनी गेट की तरफ बढ़े तो उनके बाएं सीने पर एक गोली लग गई और उनका घोड़ा भी मारा गया था। उनके साथियों ने उनको पालकी पर बैठाकर युद्ध क्षेत्र से बाहर ले जाने की कोशिश की, लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि तब तक वहां कई लाशें बिछ चुकी थीं।

मेजर एलेक्जेंडर एलन लिखते हैं कि, उस समय उनके बॉडीगार्ड राजा हान ने उन्हें सलाह दी कि, वो अंग्रेजों को अपना परिचय दे, लेकिन टीपू ने यह सलाह नामंजूर कर दी। उन्होंने अंग्रेजों के हाथों बंदी बनने के बजाए मौत का रास्ता चुना।
टीपू सुल्तान के अंतिम समय का वर्णन करते हुए भीमसेन लिखते हैं की, तभी कुछ अंग्रेज सैनिक किले के अंदरूनी गेट पर घुसे। उनमें से एक ने टीपू की तलवार को छीनने की कोशिश की। तब तक टीपू का काफी खून बह जाने की वजह से वो करीब बेहोश हो गए थे। तभी उन्होंने अपनी तलवार से उस सैनिक पर वार किया। फिर उन्होंने उसी तलवार से दूसरे अंग्रेज के सिर पर वार किया और वो वहीं धराशायी हो गया। लेकिन तभी एक अज्ञात अंग्रेज सैनिक ने टीपू पर तलवार से हमला किया। उसका उद्देश्य टीपू की रत्न जड़ित तलवार को छीनना था। उस समय उसको पता नहीं था कि, उसने किस पर तलवार चलाई थी। अंग्रेजों को पता नहीं था कि टीपू सुल्तान की मौत हो गई है। उनको ढूँढने उनके राजमहल गए। वहां अंग्रेजों को पता चला कि वो वहां नहीं है।

टीपू का एक सिपहसालार उन्हें उस जगह ले गया जहां टीपू गिरे हुए थे। वहां हर तरफ लाशें और घायल पड़े हुए थे। मशाल की रोशनी में टीपू सुल्तान की पालकी दिखाई दी। उसके नीचे टीपू के बॉडीगार्ड राजा हाग घायल पड़े थे, उन्होंने उस तरफ इशारा किया जहां टीपू गिरे थे। बाद में मेजर एलेक्जेंडर एलन ने लिखा तब टीपू के मृत शरीर को हमारे सामने लाया गया। उनकी आँखें खुली हुई थीं। उनका शरीर इतना गर्म था कि एक क्षण के लिए मुझे और कर्नल वेस्ली को लगा कि कहीं वो जिंदा तो नहीं है, लेकिन जब हमने उनकी नाड़ी और दिल को छुआ तो हमारी सभी आशंकाएं दूर हो गई। उनके शरीर पर चार घाव थे। तीन शरीर पर और एक माथे पर, एक गोली उनके दाहिने कान में घुसकर उनके बाएं गाल में धंस गई थी।

उन्होंने बेहतरीन सफेद लिनेन का जामा पहन रखा था, जिसके कमर के आसपास सिल्क के कपड़े से सिलाई की गई थी। उनके सिर पर साफा नहीं था, सायद लड़ाई के आपाधापी में नीचे गिर गया था। उनके जिस्म पर कोई भी आभूषण नहीं था सिवाय एक बाजूबंद के, ये बाजूबंद चांदी की तावीज थी। इसके अंदर अरबी और फारसी भाषा में कुछ लिखा हुआ था।
कम्यूनल बेट ने टीपू के पार्थिव शरीर को उन्हीं की पालकी में रखने का आदेश दिया और दरबार को सूचना भिजवाई गई कि टीपू सुल्तान अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनका पार्थिव शरीर पूरी रात उनके ही दरबार में रखा गया। अगले दिन शाम को राजमहल से टीपू सुल्तान की शवयात्रा शुरू हुई। उनके जनाजे को उनके निजी सहायकों ने उठा रखा था। उसके साथ अंग्रेज़ों की चार कंपनियां चल रही थीं।

नेशनल लाइब्रेरी ऑफ स्कॉटलैंड में रखे दस्तावेज “जर्नल ऑफ ऑफ विद टीपू” में लिखा गया है। उनके जनाजे के ठीक पीछे शहजादा अब्दुल हलीम चल रहे थे और दरबार के मुख्य अधिकारी। जिन सड़कों से जनाजा गुजरा उसके दोनों तरफ लोग खड़े हुए थे। वो लोग जमीन पर लेटकर जनाजे के लिए अपना सम्मान प्रकट कर रहे थे और ज़ोर-ज़ोर से रो रहे थे। उनके पार्थिव शरीर को लाल बाग में हैदर अली की कब्र के बगल में दफनाया गया। उसके बाद उन लोगों में पांच हजार रुपये बांटे गए, जो सुल्तान के जनाजे में शामिल हुए थे।

पिक्सर ने भी लिखा कि, रात होते होते माहौल और ज्यादा गमजदा हो गया जब बादलों की गड़गड़ाहट के साथ जबरदस्त आँधी आई, उस आंधी में दो अंग्रेज अफसर मारे गए और कई सैनिक घायल हो गए। टीपू के मरने के बाद अंग्रेज सैनिकों ने शेरंगपटन में खूब लूट मचाई लेकिन फिर भी टीपू का सिंघासन, हाथी पर बैठने का चांदी का हौदा, सोने और चांदी से बनी प्लेटों, जवाहरातों से जड़े ताले और तलवारों, महँगी कालीनों और सिल्क के बेहतरीन कपड़ों और रत्नों से भरे करीब 20 बक्से आम सैनिकों के हाथ नहीं लगे। टीपू की बेहतरीन लाइब्रेरी को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचा। इसमें इतिहास, विज्ञान और हदीस से संबंधित अरबी, फारसी, उर्दू और हिन्दी भाषा में 2000 से अधिक किताबें थीं।

अंग्रेजी सेना की तरफ से एक हीरे का स्टार और टीपू की एक तलवार वेलेसली को भेंट की गई। मेजर एलेक्जेंडर एलन ने अपनी किताब “एन एकाउंट ऑफ द कैम्पेन इन मैसूर” में लिखा, हैरिस ने टीपू की एक और तलवार बेयर्ड को भेंट की और सुल्तान के सिंघासन में जड़े बाग के सिर को विंडसर काउंसिल के खजाने में भेज दिया गया। टीपू सुल्तान और मुरारी राव की एक एक तलवारें लौट कार्न वालिस के पास यादगार के तौर पर भेजी गई।

तब तक अंग्रेजों के सामने टीपू से बड़ा कोई भी प्रतिद्वंदी सामने नहीं आया था। उनके बाद अंग्रेजों की युद्ध कौशल को चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा था। एक अंग्रेज पत्रकार पीटर रॉबर्ट ने अपनी किताब “राइस प्रोग्रेसिव ब्रिटिश न्यू इंडिया” में लिखा टीपू की हार के बाद पूर्व का पूरा साम्राज्य हमारे पैरों पर आ गिरा था।