जोधपुर के मेहरानगढ़ किले का इतिहास।
History of mehrangarh fort
जोधपुर विश्व भर में नीली नगरी के नाम से प्रसिद्ध है। सदियों पहले ब्राह्मणों ने अलग दिखने के लिए अपने घरों को नीला रंगवा लिया था और यह परंपरा आज भी बरकरार है। जोधपुर मारवाड़ साम्राज्य की राजधानी था जो अब राजस्थान का हिस्सा है। 20वीं सदी की शुरुआत में मारवाड़ करीब एक लाख स्क्वेयर किलोमीटर में फैला था, यानी स्विटजरलैण्ड और नेदरलैंड के मिले जुले क्षेत्रफल से भी बड़े इलाके में।
मारवाड़ थार रेगिस्तान तक फैला था। पूर्व और पश्चिम की कीमती चीजें मध्य एशिया और यूरोप के बीच मौजूद ग्रीन ट्रीज रूट पर यहीं से होकर जाती थी। मारवाड़ पर राज था राठौड़ वंश के सूर्यवंशी राजपूतों का और इसी वजह से उन्होंने अपने गढ़ का नाम रखा मेहरानगढ़, जो संस्कृत शब्द मिहिर यानी सूर्य से बना है। लेकिन मारवाड़ और उसके सूर्य दुर्ग के निर्माण के पीछे है एक लम्बी कहानी।
राठौड़ मारवाड़ के मूल निवासी नहीं थे वो मध्य भारत से आए थे। राव सिंहजी इस वंश के संस्थापक माने जाते हैं। वही अपने पूरे कुनबे के साथ मारवाड़ में आए थे। करीब आठ सौ साल पहले राठौड़ रिफ्यूजी की तरह मारवाड़ पहुंचे। उन्हें अपना घर कन्नौज अफगान हमलावर मोहम्मद गोरी के हमले के बाद छोड़ना पड़ा। एक पेंटिंग के मुताबिक 1226 में वो एक नई ज़िंदगी की तलाश में पश्चिम की ओर निकले। कई साल बाद मारवाड़ पहुंचे और समय के साथ वहां के शासक बन गए। सन् 1459 में राठौड़ राजा राव जोधा ने मेहरानगढ़ किले का निर्माण शुरू करवाया। राव जोधा को लगा कि, अब वह अपना किला और अपनी राजधानी बनवाने का समय आ गया है। उन्होंने इस इलाके में तफ्तीश शुरू की। उनकी नजर एक पहाड़ी पर पड़ी जिसका नाम भाकर चिडिय़ा यानी पक्षियों का पहाड़ था। बीहड़ रेगिस्तान में वो एक विशाल मीनार की तरह खड़ा था, भाखर चिडिय़ा पार 400 फुट ऊंचा सीधे चढ़ाई वाला एक लुप्त ज्वालामुखी था और रणनीतिक रूप से बेहतरीन।
लेकिन उस पर किला बनाने का मतलब था इस विशालकाय पर्वत से लाखों टन चट्टानों की कटाई, शुरू हो गई इंसान और पहाड़ के बीच जमकर। खंडवा लिया समाज जिनके पास होता है एक खास हुनर। स्थानीय लोग पत्थर को खंड भी कहते हैं और ये इन खंडों के बड़े अच्छे जानकार थे। स्थानीय ज्ञान और मामूली औजारों से शुरू हुआ एक महान निर्माण। ये लोग पत्थर को खोदकर उसके वाइब्रेशन की आवाज सुनते हैं जिससे उन्हें पता लग जाता कि, चट्टान में फॉल्स कहां है। फॉल्स मतलब चट्टान में पड़ी वो दरारें जो उसे कमजोर बनाती हैं। खंडवा के लोगों ने आवाज सुनकर चट्टान की दरारों का पता लगाने का हुनर पीढ़ियों से सीखा था। धीरे -धीरे खंडवा लियू के हुनर ने पर्वत को काटकर एक नया आकार दे दिया। उनके अलावा एक और खास समाज था जो एक दूसरे काम में माहिर था, बाहरी चीजों को उठाने में।
शव्वालया मध्यकाल के ढुलाई करने वाले थे, जो साधारण दंड और जंजीरों की मदद से भारी से भारी सामान ले जा सकते थे। इसके बाद बने लकड़ी के अनूठे रैप, जिनके जरिए किला बनाने के लिए लाखों टन पत्थर पहुंचाए गए। मेहरानगढ़ किले को अंजाम तक पहुंचाया चव्वालियां लोगों की कड़ी मेहनत ने। हैरानी की बात तो यह है कि, इस इमारत की कोई ड्रॉइंग या नक्शा नहीं था। इसकी स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग शायद उनके अपने ज्ञान पर आधारित थी। आर्किटेक्चर का ये बेमिसाल नमूना पूरे पहाड़ पर फैला हुआ है, कई अलग अलग लेवल पर इसके परकोटे बने हैं। एक के बाद एक कई दीवारें इस किले को सुरक्षा प्रदान करती थी। इस किले के अंदर शाही खानदान के अलावा एक मुस्तैद सेना भी रहती थी। दुश्मन को दुर्ग से दूर रखना सबसे जरूरी काम था। इसकी मोटी दीवारें तोप के गोलों का भी सामना कर सकती थीं। मेहरानगढ़ की ऊचाई राजनैतिक सुदृढ़ता के साथ साथ दूर तक निगरानी की क्षमता भी देती थी। पांच सदियों से भी ज्यादा में पच्चीस राठौड़ राजाओं के अधीन मेहरानगढ़ का स्तर और खूबसूरती दोनों बढ़ते गए।
ये किला सिर्फ विशाल ही नहीं है। इसके अंदर एक नाजुक दिल भी है। महल, खूबसूरत बाग, कला ये है राजपूताना की शान की एक अनुपम मिसाल। लेकिन कला का विकास मारवाड़ की समृद्ध रहने तक ही सीमित था और समृद्धि रक्त और बलिदान मांगती है। मरते दम तक लड़ने के लिए युद्ध में जाने से पहले राजपूत योद्धा केसरिया अनुष्ठान करते थे, सबसे बड़े बलिदान का प्रतीक।
ये बहुत ही दुखद रस्म थी ।जब राजपूतों को लगता था कि हालात उनके खिलाफ हैं और जीत संभव नहीं तो आत्मसमर्पण की बजाए ये उनकी आखिरी जंग होती थी। उन्हें मौत कुबूल थी अपमान नहीं। राठौर राजा अपने योद्धाओं के साथ बैठते अपने शाही हाथों से अपने वीरों को एक नशीली दवा देते थे। इसके बाद वह अपनी खूबसूरत पगड़ी उतार देते और उसकी जगह कुर्बानी के जज्बे को बढ़ाता केसरिया साफा बांध लेते। लोग अपनी वफादारी दिखाने के लिए अपनी तलवार महाराजा के सामने रख देते, फिर उसके ऊपर एक टीका लगाया जाता था। इसके बाद वो अपने आखिरी युद्ध के लिए निकल पड़ते हैं। सन् 1741 में मेहरानगढ़ के ये राठौड़ अपनी मौत को गले लगाने गंगवानी के युद्ध के लिए निकले। राजपूताना खून की यहीं शान थी। इनके शौर्य की गौरव गाथा आज भी सूर्य दुर्ग मेहरानगढ़ में शान से गूंजती है।
जोधपुर के मेहरानगढ़ किले के रोचक तथ्य
- मेहरानगढ़ दुर्ग की नींव कब रखी गई?
उन्होने अपने तत्कालीन किले से ९ किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर नया किला बनाने का विचार प्रस्तुत किया। इस पहाड़ी को भोर चिड़ियाटूंंक के नाम से जाना जाता था, क्योंकि वहाँ काफ़ी पक्षी रहते थे। राव जोधा ने 12 मई 1459 ई. को इस पहाडी पर किले की नीव डाली, जो कि आकृति का है | महाराज जसवंत सिंह (१६३८-७८) ने इसे पूरा किया।
- भारत का सबसे बड़ा किला कौन सा है?
इंडिया का सबसे बड़ा किला मेहरानगढ़ किला है जो कि भारत के राज्य, राजस्थान के जोधपुर शहर में स्थित है यह किला 1459 में राव जोधा के द्वारा बनवाया गया था india का सबसे बड़ा किला तो है ही साथ ही यह 410 फीट की ऊंचाई पर भी स्थित है जो की बहुत मोटी-मोटी दीवारों से घिरा हुआ है इस किले के अंदर कई भव्य महल बने हुए हैं
- मेहरानगढ़ किला का राजा कौन था?
इस किले का इतिहास 500 साल पुराना है। जोधपुर के शासक राव जोधा ने 1459 में इस किले का निर्माण शुरू करवाया था और महाराज जसवंत सिंह (1638-78) ने इसे पूरा किया।
- मेहरानगढ़ का अन्य नाम क्या है?
मेहरानगढ़ दुर्ग को मयूरध्वज गढ़ के नाम से जाना जाता है| मेहरानगढ़ दुर्ग जोधपुर में स्थित है| इसका निर्माण 15वीं शताब्दी में किया गया था| यह दुर्ग पथरीली चट्टान पहाड़ी पर मैदान से 125 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और आठ द्वारों व अनगिनत बुर्जों से युक्त दस किलोमीटर ऊँची दीवार से घिरा हुआ है|
- किले का निर्माण कैसे होता है?
सामान्य रूप से क़िले के निर्माण के लिये किसी ऊँची पहाड़ी को चुना जाता था जिसकी ढालू चट्टानों पर पहुँचना कठिन होता था। जिस ओर से शत्रु के चढ़ आने की आशंका होती थी उस ओर की चट्टानों को काटकर ऐसा ढलवाँ मार्ग बना दिया जाता था जिससे एक ही दीवार द्वारा उसकी रक्षा हो जाती थी और दूसरी पहाड़ी बिल्कुल सीधी और खड़ी होती थी।